________________
अभिव्यक्ति
सहना सुखी जीवन की एक अनिवार्य अपेक्षा है। वास्तव में जो सहना जानता है, वही जीना जानता है। जिसे सहना नहीं आता वह न तो शान्ति से जी सकता है और न अपने परिपार्श्व के वातावरण को शान्तिमय रहने देता है। जहां समूह है वहां अनेक व्यक्तियों को साथ जीना होता है। जहां दूसरे के विचारों को सुनने, समझने, सहने और आत्मसात् करने की क्षमता नहीं होती, वहां अनेक उलझनें खड़ी हो जाती हैं। जितने भी कलह उत्पन्न होते हैं, चाहे वे पारिवारिक हों या सामाजिक उनके मूल में एक कारण असहिष्णुता है।
मनुष्य के पास शरीर है, वाणी है और मन है। जैन दर्शन की भाषा में इन तीनों की प्रवृत्ति को योग कहा जाता है। इन तीनों का आलम्बन लिए बिना शुभ या अशुभ कोई भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। सहनशीलता और असहनशीलता की अभिव्यक्ति का संबंध शरीर, वाणी और मन–तीनों के साथ है। यदि इन तीनों को साध लिया जाए तो सहिष्णुता का गुण स्वतः विकसित हो जाएगा। सहिष्णुता का विकास आपकी चेतना में शांति और आनन्द का अवतरण करने वाला सिद्ध होगा।
परम पूज्य आचार्यश्री महाप्रज्ञ का साहित्य विपुल मात्रा में प्रकाशित है। इसी में से निर्वृहण कर कुछ नया साहित्य भी सृजित किया गया है। जानकारी प्राप्त हुई कि मुनि जयंतकुमारजी ने ऐसा कुछ प्रयास किया है। उसमें अशोकजी संचेती का भी योग है। उसकी निष्पत्ति है 'जो सहता है, वही रहता है' पुस्तक । पाठक इससे लाभान्वित हों, मंगलकामना ।
आचार्य महाश्रमण
१०/१०/२०१० तेरापंथ भवन, सरदारशहर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org