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जो सहता है, वही रहता है जीवन का आधार
हम जीवन को समझें। जीवन क्या है? जो दीख रहा है, वही केवल जीवन नहीं है। जीवन के मूल में दो तत्त्व निरंतर काम करते रहते हैं। एक है द्रव्य और दूसरा है पर्याय । ज्ञान द्रव्य भी है और पर्याय भी है। ज्ञान एक भी है
और अनेक भी है। ज्ञान स्वावलम्बी भी है और परावलम्बी भी है। उसमें अपने आपमें जानने की निरन्तर क्रिया होती रहती है। ज्ञान जब दो के रूप में बदलता है तब परावलम्बी बन जाता है।
अपने आप में जानने की क्रिया अपेक्षा से ज्ञान एक है। दो के आधार पर बदलते हुए पर्यायों को जानने वाला ज्ञान अनेक बन जाता है।
ज्ञान नित्य है अनेक स्वरूप में । बदलते हुए पर्यायों को जानने वाला ज्ञान अनित्य हो जाता है।
हमारे जीवन का पहला पक्ष है-ज्ञान । जीवन का मूल आधार है ज्ञान । जीवन का दूसरा पक्ष है-पर्याय । वह निरंतर बदलता रहता है। पर्याय एक प्रकार का नहीं होता। परिवर्तन एक प्रकार का नहीं होता। उसके दो प्रकार हैं। एक है स्वाभाविक परिवर्तन, सहज में होने वाला परिवर्तन और दूसरा है यौगिक परिवर्तन, निमित्तों से होनेवाला परिवर्तन, संयोग और संबंधों से फलित होने वाला परिवर्तन । स्वाभाविक परिवर्तन पर किसी का अधिकार नहीं होता। वह स्वाभाविक रूप से घटित होता है। न उसे रोका जा सकता है और न उसे बदला जा सकता है। वह पदार्थ का अपना अस्तित्व है। वह अस्तित्व से जुड़ा हुआ परिवर्तन है। वह परिवर्तन इसलिए होता है कि पदार्थ दूसरे क्षण में अपना
अस्तित्व बनाए रख सकें। पहले क्षण का पदार्थ दूसरे क्षण में बना रह सके, इसके लिए परिवर्तन अपेक्षित होता है। यदि कोई भी पदार्थ क्षण में न बदले, तब उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। पदार्थ क्षण-क्षण बदलता है। यह स्वाभाविक परिवर्तन है। यह स्वतः चलित पर्याय है। यह पदार्थ का स्वतः चालित नाड़ी-संस्थान है। दूसरा है ऐच्छिक पर्याय, निमित्तों से होने वाला पर्याय। परिवर्तन का हेतु
ध्यान की साधना परिवर्तन की साधना है, बदलने की साधना है। ध्यान
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