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जो सहता है, वही रहता है होना, अपने आपको जानना और अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखना, यह वस्तुगत लक्ष्य है। इसी आधार पर मनुष्य की स्वतंत्रता सुरक्षित है। निर्धारित लक्ष्य में अव्यवस्था हुई है। मनुष्य ने शरीर और इंद्रियों की तृप्ति को लक्ष्य बनाया, इसीलिए जीवन का मुख्य लक्ष्य बन गया सुख। जीवन व जीविका
सुखवाद आचारशास्त्र का एक बहुचर्चित वाद है। सुख पाने के लिए नैतिक या धार्मिक जीवन जरूरी है, किन्तु सुख को शरीर और इंद्रिय तक सीमित कर दिया गया, इसलिए नैतिकता जरूरी नहीं रही, जीविका उससे अधिक जरूरी बन गई। आज पूरे समाज में जीवन और जीविका का संघर्ष चल रहा है। जीवन अच्छा हो, इसकी चिंता माता-पिता को है और विद्यार्थी को भी है। जीविका अच्छी हो, इसकी चिंता माता-पिता को कम है और विद्यार्थी को भी कम है। इस परिस्थिति में एक व्यवसायी मनोवृत्ति का विकास हुआ है।
कहा जाता है कि एक व्यवसायी मृत्यु के बाद यमराज के पास पहुँचा। यमराज ने उसके जीवन का लेखा-जोखा कर पूछा, 'तुम कहाँ जाना चाहते हो, स्वर्ग में या नरक में?' व्यवसायी बोला, 'हुजूर! जहाँ दो पैसे की कमाई हो, वहीं भेज दो। मुझे स्वर्ग और नरक से कोई मतलब नहीं है।'
इस मनोवृत्ति का विकास जीवन के विकास की सबसे बड़ी बाधा है। पदार्थ और पैसे की होड़ इसी मनोवृत्ति का परिणाम है। इस मनोवृत्ति ने और भी न जाने कितनी समस्याएँ पैदा की हैं! क्या आज का चिंतनशील युवा जीवन और जीविका के बीच कोई भेदरेखा खींचने की बात सोचेगा?
- स्वर्णिम सूत्र
तुम क्या चाहते हो? यदि चाह स्वस्थ तो आगे बढोगे। चाह को सही दिशा दो। सही दृष्टि और सही दिशा आदमी को आदमी बनाती है।
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