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________________ १४० जो सहता है, वही रहता है में कुछ पता नहीं चलता, किन्तु सूक्ष्म दर्शन में हर चरण पर उस संबंध का आभास होता है। एक आदमी दूसरे के घर जा रहा है। वह गति कर रहा है, चल रहा है, क्योंकि संबंध जुड़ा हुआ है । वह उससे जुड़ा हुआ है, इसलिए जा रहा है। अपने मित्र के घर जाता है, संबंधी के घर जाता है, जिसके साथ जिसका संबंध जुड़ा है, वह उसके पास जाता है। संबंध की प्रेरणा उसे वहाँ ले जाती है। जहाँ उपयोगिता है, वहाँ आदमी चला जाता है। योग, उपयोग और प्रभाव, इन तीन सूत्रों के आधार पर परस्परावलंबन की बात समझ में आती है। कोई भी व्यक्ति परस्परावलंबन के बिना अपनी जीवनयात्रा नहीं चला सकता और इस दुनिया में अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकता। दूसरी मंजिल पहली मंजिल पर टिकी हुई है और पहली मंजिल नींव पर टिकी हुई है। नींव भूमि पर टिकी हुई है। यदि भूमि नहीं तो नींव नहीं टिकेगी। अधर में कुछ भी नहीं है, सब आधार पर टिका हुआ है। जो अधर में है, वह सूक्ष्म जगत है, हमारे व्यवहार का जगत नहीं है। व्यवहार का पूरा जगत आधार पर टिका हुआ है। इसलिए हर बात में आधार खोजा जाता है। समाज एक आधार पर चल रहा है। जहाँ परस्परावलंबन की विस्मृति होती है, वहाँ सामाजिक जीवन में समस्याएँ पैदा होती हैं। वर्तमान की समस्याओं का विश्लेषण किया जाए तो पता चलेगा कि गरीबी की समस्या उतनी भयंकर नहीं है, जितनी परस्परावलंबन की समस्या है। आदमी सामाजिक जीवन जी रहा है, किन्तु वह परस्परावलंबन का अंकन नहीं कर रहा है। नींव के पत्थर दिल्ली को देखते ही लगता है कि यह भव्य नगर है। इस बार जो शिविर का स्थान मिला, वह दो होटलों के बीच में है। इधर होटल है, उधर होटल है, इन होटलों के बीच रहकर शिविर में रहने का मन नहीं करता। मन सीधा होटलों की ओर जाता है, इसलिए मैं शिविर में नहीं आया। इतने बड़े और इतने बढ़िया होटल, उनमें रहने वाले बड़े लोग! बड़े-बड़े भवनों में रहने वाले बड़े और धनी लोग उन लोगों को भूल जाते हैं, जो इन बड़े भवनों का निर्माण करते हैं। परस्परावलंबन का सिद्धान्त था कि सहारा लो और सहारा दो। विनिमय करो सहारे का, आलंबन का । परस्पर आलंबन होता, सहारे की स्मृति होती, तो यह समस्या पैदा नहीं होती। अतीत और वर्तमान में एक समस्या रही है-परस्परावलंबन की। समाज की प्रकृति है परस्परावलंबन । जब उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003054
Book TitleJo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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