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जो सहता है, वही रहता है
जाएंगे तो क्षयोपशम भी बंद हो जाएगा । कर्म और चेतना, ये दो तंत्र हैं। एक सक्रिय होता है तो दूसरा निष्क्रिय हो जाता है। दूसरा सक्रिय होता है तो पहला निष्क्रिय बन जाता है। कभी कर्म का प्रभाव सक्रिय हो जाता है और कभी चेतना का प्रभाव सक्रिय होता है । क्षयोपशम की सक्रियता पुरुषार्थ से जुड़ी हुई है। भाग्य की डोर
महावीर ने कहा, 'व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का विधाता है। व्यक्ति के भाग्य की डोर उसके अपने हाथ में है, लेकिन वह तब है, जब सही अर्थ में पुरुषार्थ सक्रिय रहे।' यदि पुरुषार्थ गलत हो जाए तो अपने दुर्भाग्य का विधाता भी व्यक्ति स्वयं बन जाता है। यदि व्यक्ति पुरुषार्थ न करे, आलसी बन जाए तो सब कुछ खराब हो जाता है । कर्मवाद को मानने वाला इस तथ्य को समझे कि भाग्य का उदय होने वाला है, किन्तु यदि उसके अनुरूप पुरुषार्थ नहीं किया गया तो भाग्योदय कदापि नहीं होगा । हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि आलस्य न हो, गलत पुरुषार्थ न हो एवं सही पुरुषार्थ निरंतर चलता रहे। हाथ पर हाथ रखकर बैठने से पेट नहीं भरता । जो भाग्यवादी हैं, वे निराश होकर बैठ सकते हैं, कर्मवादी कभी निराश होकर नहीं बैठता । उसे अपने पुरुषार्थ पर विश्वास होता है ।
आत्मा से जुड़ाव
मूल बात है कि प्रज्ञा आत्मा के साथ जुड़ी हुई है या नहीं ? यदि हम आत्मा के साथ जुड़े हुए हैं तो हमारा पुरुषार्थ सही दिशा में होगा । यदि हम आत्मा के साथ नहीं, किन्तु शरीर के साथ जुड़े हुए हैं तो पुरुषार्थ की दिशा सही नहीं रह पाएगी। साधु जीवन या श्रावक जीवन के पुरुषार्थ का सही दिशा में नियोजन नहीं है तो हम अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो पाएँगे। हम शरीर के साथ जुड़े हुए हैं, इसका अर्थ है हम नितांत भौतिकवादी बन गए, नास्तिक बन गए। हम शरीर को पालते हैं, उसे सब कुछ मानकर नहीं चलते। जिस क्षण चेतना का प्रकाश फूटता है, इस सच्चाई का बोध होता है कि शरीर सब कुछ नहीं है । वह यात्रा चलाने का साधन मात्र है ।
आत्मप्रज्ञ बनो
हम एक कसौटी को सामने रखें। हम कुछ भी करें तो यह सोचें कि मेरे
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