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________________ अपना आलंबन स्वयं बनें १०९ जितना श्रम है, उसे अस्वीकार न करें, उसका शोषण न करें। श्रम शब्द सापेक्ष है। उसका तात्पर्य है कि अपना श्रम स्वयं करें। यदि दूसरे से काम लें तो उसका शोषण न करें। यह मनुष्य की वृत्ति रही है कि वह काम ज्यादा कराना चाहता है, वेतन कम देना चाहता है। इसी प्रतिक्रिया में यह वृत्ति बन गई कि काम करने वाला काम करना नहीं चाहता, पारिश्रमिक अधिक लेना चाहता है। समस्या दोनों ओर उलझ गई। जितना काम, उतना दाम। यह व्यवस्था होती तो समस्या कभी उलझती नहीं। आज सामाजिक दृष्टि से यह माना जाता है कि यदि किसी से काम लेना है तो पर्याप्त प्रतिफल दो। नीति बहुत स्पष्ट है, किन्तु आदमी लोभवश दूसरे का शोषण करता है। जहाँ शोषण होता है, वहाँ समस्या उभरे बिना नहीं रह सकती। शोषणमुक्त समाज बीसवीं शताब्दी का एक सर्वाधिक चर्चित शब्द है, 'शोषण' । आज शोषणमुक्त समाज की बात बहुत प्रिय लग रही है। प्रायः यह देखा जाता है कि सामान्य परिवार में जो व्यक्ति जन्म लेता है, वह परिश्रमी और सहनशील होता है। जो आर्थिक संकट में पलता है, वह शायद अधिक अच्छा होता है। दुनिया में जितने बड़े-बड़े लोग हुए हैं, वे प्रायः साधारण गाँवों के बहुत साधारण घरों में जन्मे। जहाँ दूसरे का शोषण नहीं होता, दूसरों के लिए कुछ करने की बात होती है, वह समाज अपने आप में अनूठा होता है, विकास के शिखर को छूने वाला समाज होता है। शोषण : धार्मिक दृष्टि शोषण न करें, इस सूत्र का धार्मिक दृष्टि से भी मूल्यांकन करें। धार्मिक दृष्टि यह है कि दूसरे के श्रम का शोषण करना हिंसा है, अहिंसा का अतिचार है। दूसरे की वृत्ति का छेद न करना, अहिंसा व्रत का एक नियम है। जिसने अहिंसा का व्रत स्वीकार किया है, यदि वह यह संकल्प स्वीकार करता है कि मैं किसी प्राणी का संकल्पपूर्वक वध नहीं करूंगा। यदि व्यक्ति दूसरे का शोषण करता है, तो इस व्रत को बाधा पहुँचाता है। शोषण एक प्रकार से दूसरे के प्रति घात हो जाती है। किसी के घर में पाँच-सात आदमी हैं। वह पूरा श्रम करता है और उसे २०० रुपए प्रति माह मिलते हैं। क्या यह संकल्पपूर्वक घात नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003054
Book TitleJo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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