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मिताहार
एक कवि दीपक के सामने खड़ा था । उसने देखा, एक ओर ज्योति जल रही है, दूसरी ओर धुंआ निकल रहा है । कवि के मन में विकल्प उठा, ज्योति के साथ धुआं क्यों ? इस निर्मल और जाज्वल्यमान प्रकाश के साथ यह धूमकलिका क्यों? वह चिन्तन की गहराई में गया, उसे समाधान मिल गया-जो जैसा खाता है, वैसा ही निस्सरण होता है। प्रकाश अंधकार खाता है तो धुआं ही निकलेगा, अंधकार ही निकलेगा। भोजन : विकास चतुष्टयी
यह एक छोटा सा रूपक, कवि का छोटा सा विकल्प बहुत बड़ी सचाई को उजागर कर रहा है । भोजन के साथ हमारे शरीर और भावनाओं का गहरा संबंध है । हम खाते समय इतना ही न सोचें, पेट की आग को बुझाना है, केवल भूख को शांत करना है। हम भोजन को सर्वांगीण दृष्टि से देखें । भोजन के साथ हमारे जीवन का कितना संबंध है । हजारों वर्ष पहले भी अध्यात्म के आचार्यों और मनीषियों ने भोजन के बारे में बहुत अनुसंधान किए । जीवन के साथ भोजन का जो संबंध है, उस पर बहुत प्रकाश डाला। भोजन की आचार-संहिता बनाकर अनेक नियमों का सृजन किया । भोजन का संबंध जीवन के प्रत्येक पक्ष के साथ बतलाया । ब्रह्मचर्य के साथ भोजन का सम्बन्ध, इन्द्रिय-संयम के साथ भोजन का संबंध, विद्या और मेधा के साथ भोजन का संबंध । भाष्य और चूर्णि साहित्य में इसकी काफी चर्चाएं हुई हैं। किस भोजन से मेधा बढ़ती है और किस भोजन से मेधा घटती है? विद्या, बुद्धि, मेधा, धृति, इन्द्रिय-निग्रह-इन सबके साथ भोजन का संबंध है । इन सारे सिद्धान्तों को संक्षेप में समेटें तो कहा जा सकता है- शारीरिक स्वास्थ्य,
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