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बीज प्रस्फुटित होता है, परमात्मा बन जाता है । हम परमात्मा को बाहर खोजेंगे तो वह नहीं मिलेगा।
यात्रा करें भीतर की ___ मध्यकालीन संतों ने इस सचाई को बहुत उजागर किया कि तुम तीर्थों की यात्रा करते हो किन्तु असली तीर्थ तुम्हारे भीतर है । कस्तूरी मृग बाहर ही बाहर दौड़ता रहता है, किन्तु अपनी नाभि में बसी कस्तूरी से अनजान बना रहता है । तुम बाहर की यात्रा बंद करो, अपने भीतर आओ । ध्यान का महत्त्व इसी बिन्दु पर आधारित है । समस्या यह है- भीतर की खोज नहीं चलती, हम बाहर की यात्रा में ही उलझे हुए हैं । हम एक बार बाहरी यात्रा को स्थगित करें, भीतर की यात्रा आरंभ करें । भीतर की यात्रा करने का अर्थ है- ध्यान-साधना और इसी यात्रा का नाम है- आत्मा से परमात्मा तक पहुंचना । यही है मोक्ष
यदि यह पूछा जाए- आत्मा और परमात्मा में दूरी कितनी है ? तो मेरा उत्तर होगा- ज्यादा से ज्यादा एक मीटर । हम शक्तिकेन्द्र से ज्ञानकेन्द्र की यात्रा करें, यह परमात्मा की यात्रा है । प्राणधारा को नीचे से उठाना और ऊपर ले जाना, यही है हमारा मोक्ष । जो वृत्तियां जागृत होकर मनुष्य को संसार में ले जाती हैं, वे नीचे की ओर जाती हैं । जो वृत्तियां जागृत होकर मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाती हैं, वे ऊपर की ओर जाती हैं । स्वार्थ हमेशा नीचे की ओर जाएगा । जितने परमार्थ के विचार हैं, वे ऊपर की ओर जाएंगे । नीचे से ऊपर की ओर जाना परमात्मा होना है। संसार और मोक्ष
कहा जा सकता है- शरीर में ही संसार है और शरीर में ही मोक्ष है। यदि यह परिकल्पना स्पष्ट हो, हम मोक्ष को समझें तो जीव से अस्तित्व तक की, आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा निर्बंध सम्पन्न हो जाती है । हम इस सचाई को जानें । इसमें दृढ़ आस्था, विशुद्ध चेतना और भावक्रिया बहुत
आत्मा और परमात्मा
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