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संघर्ष का उद्देश्य
. हम आत्मा को भी मानते हैं. चित्त और मन को भी मानते हैं । मन और चित्त से परे है आत्मा । मन और चित्त- इन दोनों को चेतन और अचेतनदो संभाग मानें, हम कर्म-शरीर तक पहुंच जाएंगे । कर्म-शरीर बांधने वाला है, वह स्वतन्त्रता नहीं देगा । स्वतन्त्रता का मूल्यांकन करने के लिए आत्मा के पास जाना जरूरी है । आत्मा कर्म-शरीर से परे है और वह बंधन को तोड़ने के लिए निरनतर संघर्ष कर रहा है । उसे पारिभाषिक शब्दों में कहा जाता है- पारिणामिक भाव । संघर्ष में से जो आता है, वह है हमारी स्वतन्त्रता । आत्मा हमारी स्वतन्त्रता को बनाए हुए है और बंधन हमारी स्वतंत्रता को बाधित बनाए हुए हैं । यह स्वतन्त्रता और परतन्त्रता का संघर्ष निरन्तर चल रहा है और उसके बीच चल रहा है हमारा व्यक्तित्व, जो स्वतन्त्र है किन्तु बंधा हुआ भी है।
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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