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भीतर भरा पड़ा है । वह जैसा-जैसा बाहर आता है, आदमी वैसा-वैसा बनर जाता है। इसी अर्थ में कहा जाता है- बंधा हुआ व्यक्तित्व । आदमी मुक्त नहीं है, बंधा हुआ है। दोहरा व्यक्तित्व ___ हमारा व्यक्तित्व सहज ही दोहरा है, बाह्य और आन्तरिक- दोनों है । एक व्यक्ति बहुत अच्छा आचरण करने वाला है पर चलते-चलते भीतर में जो पाप का प्रवाह था, उसका उदय हो गया और व्यक्ति का आचरण बदल गया । मनोवैज्ञानिकों ने चेतन और अचेतन के आधार पर व्यक्तित्व की व्याख्या करने का प्रयत्न किया । उनके सामने कर्मवाद का सिद्धान्त नहीं था, पुण्य और पाप का सिद्धान्त नहीं था, इसीलिए उनकी व्याख्या पूर्ण नहीं बन पाई । मानवीय व्यवहार की व्याख्या तब तक पूर्णता के साथ नहीं की जा सकती जब तक पुण्य, पाप, बंध और आश्रव की प्रक्रिया को नहीं समझा जाता । इन्हीं चार आधारों पर कर्मवाद चलता है । इनको समझे बिना मानवव्यवहार की सम्यक् व्याख्या नहीं की जा सकती । दोनों तरफ चलें
व्यवहार के संदर्भ में हमें यह स्वीकार करना होगा कि भीतर से कोई अच्छा प्रवाह आ रहा था, तब तक सब ठीक-ठाक चल रहा था । भीतरी प्रवाह बदला और व्यक्ति का आचरण बदल गया । आचरण और व्यवहार की व्याख्या भीतरी प्रवाह के आधार पर, कर्म विपाक के आधार पर करनी होगी । आज एक आदमी बुरा आचरण कर रहा है पर अच्छा कहला रहा है, सुख भोग रहा है । इसका अर्थ है-भंडार में से कुछ आ रहा है । एक आदमी अच्छा आचरण कर रहा है पर बुरा कहला रहा है, दुःख भोग रहा है । इसका अर्थ है-भंडार में से कुछ आ रहा है | व्याख्या करने के लिए दोनों तरफ चलना होगा-भीतर से बाहर और बाहर से भीतर । दोनों प्रणालियां चल रही हैं । बाहर वाला भीतर को फीड कर रहा है, भीतर वाला बाहर को फीड कर रहा है । इन दोनों प्रणालियों को समझ लें तो जीवन की व्याख्या करने में कोई कठिनाई नहीं होगी।
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जैन धर्म के साधना-सूत्र
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