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सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना ।
३. इत्वरिक प्रतिक्रमण - दैवसिक, रात्रिक आदि प्रतिक्रमण करना ।
४. यावत्कथिक प्रतिक्रमण - हिंसा आदि से सर्वथा निवृत होना अथवा आजीवन अनशन करना ।
५. यत्किंचित् मिथ्या दुष्कृत प्रतिक्रमण - साधारण अयतना होने पर उसकी विशुद्धि के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' इस भाषा में खेद प्रकट
करना ।
६. स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण - सोकर उठने के पश्चात् ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना । '
साध्वाचार के सूत्र
प्रश्न १५. दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक व सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में क्या अंतर है ?
उत्तर- दैवसिक प्रतिक्रमण में दिवस संबंधी, रात्रिक प्रतिक्रमण में रात्रि संबंधो, पाक्षिक प्रतिक्रमण में पक्ष संबंधी, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार मास संबंधी व सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में संवत्सरी - एक वर्ष संबंधी दोषों की आलोचना की जाती है ।
प्रश्न १६. क्या सभी तीर्थंकरों के युग में प्रतिक्रमण दोनों समय किया जाता था ?
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उत्तर- पहले व अंतिम तीर्थंकरों के साधु-साध्वियों के लिए दोनों समय प्रतिक्रमण करने की अनिवार्यता है । मध्यवर्ती बावीस तीर्थंकरों एवं महाविदेह के साधु साध्वियों के लिए प्रतिक्रमण का निश्चित समय नहीं वे जब दोष लगता, तभी उसकी आलोचना कर लेते।
है ।
प्रश्न १७. क्या इसके अतिरिक्त भी किया जाता है ?
उत्तर - वस्तुतः जब भी मन संयम से बाहर जाए तो उसे पुनः संयम में प्रतिष्ठित करना अथवा कोई दोष लग जाये तो उसका आलोचन करना । प्रतिक्रमण है । परन्तु विधिवत् सूत्र के पाठ पूर्वक जो प्रतिक्रमण किया जाता है वह दो बार ही किया जाता है ।
१. ठाणं ६/१२५ २. अमृत कलश
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३. अमृत कलश
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