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साध्वाचार के सूत्र
उत्पन्न होने पर अदीनवृत्ति रखना, अकल्पती औषधि की इच्छा न करना। १७. तृणस्पर्श-परीषह-तृणों की शय्या पर सोते समय उसके स्पर्श से होने वाले कष्ट में धैर्य रखना। १८. जल्ल-परीषह-ग्रीष्म आदि के समय पसीने से, मैल या रजों से शरीर लिप्त होने पर सुखार्थी होकर दीनता न लाना एवं स्नान आदि की इच्छा न करना। १९. सत्कार-पुरस्कारपरीषह- सम्मान होने पर अहंकार न करना एवं अपमान होने पर खिन्न न होना। २०. प्रज्ञापरीषह- बुद्धि की मन्दता के कारण प्रश्न का उत्तर न दे सकने पर उदासी न लाना एवं धैर्यपूर्वक संयम का पालन करते रहना। २१. अज्ञानपरीषह-विशेष ज्ञान (केवलज्ञान) न होने पर अधीर न होना अर्थात् ऐसे न सोचना कि मैं निरर्थक ही साधु बना, तप प्रतिमा आदि इतनी साधना करने पर भी मुझे केवलज्ञान नहीं होता। २२. दर्शनपरीषहसम्यग्दर्शन में सुदृढ़ रहना। आषाढ़भूति आचार्यवत् परलोक आदि में
सन्देह न लाना। प्रश्न २४६. २२ परीषह किस-किस कर्म के उदय से होते हैं? उत्तर-वेदनीय कर्म के उदय से-११, मोहनीय कर्म के उदय से–८, ज्ञानावरणीय
कर्म के उदय से-२, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से–१ होते हैं। प्रश्न २४७. कन्दर्प-कौत्कुच्य आदि करने वाले साधुओं की क्या गति होती
उत्तर-आगम के अनुसार आराधक-साधुओं की गति वैमानिक देव तथा मोक्ष है
लेकिन कन्दर्प कथा (काम कथा) आदि में आसक्त साधु यद्यपि तपस्या के बल से देवगति प्राप्त कर लेते हैं किन्तु दूसरों के गुलाम एवं हीन देवता
बनते हैं। प्रश्न २४८. चरण गुण का अर्थ क्या है तथा उसके कितने प्रकार हैं? उत्तर-साधु द्वारा निरन्तर सेवन करने योग्य चारित्र-संबंधी नियमों को चरणगुण
कहते हैं। चरणगुण सत्तर मान गये हैं, (ये चरणसत्तरी के नाम से प्रसिद्ध हैं) यथा-पांच महाव्रत, दस प्रकार का श्रमणधर्म, सत्रह प्रकार का संयम, दस प्रकार का वैयावृत्त्य, ब्रह्मचर्य की नव गुप्तियां, ज्ञानादिरत्नत्रिक, बारह प्रकार का तप और चार कषाय का निग्रह । २
२. ओघनियुक्ति भाष्य गाथा २
१. (क) उत्तरा. ३६/२६४ से २६७
(ख) प्रवचनसारोद्धार द्वार७३गा. ६४६
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