________________
१४६
साध्वाचार के सूत्र
दुर्गमस्थान हो, नीचा-स्थान हो या विषमस्थान, गड्ढा हो या गुफा । कारणवश शरीर से पृथ्वी आदि सचित्त रज लग जाए तो जब तक वे प्रस्वेद आदि से स्वयं विध्वंस्त न हो जाए तब तक उन्हें आहार- पानी के लिए जाना नहीं कल्पता ।
उन्हें शीत या उष्ण जल से हाथ-पैर दांत आंख-मुख आदि धोना नहीं कल्पता । अशुचि पदार्थ लग जाने पर धो सकते हैं।
चलते समय सामने घोड़ा- हाथी, बैल-सूअर - कुत्ता या व्याघ्र आदि आ जाएं तो डरकर उन्हें एक कदम भी पीछे हटना नहीं कल्पता । लेकिन हिरण आदि भद्र - जीव यदि उनसे डरकर भागते हों तो चार कदम पीछे हट सकते हैं ।
उन्हें ठंडे स्थान से गर्म स्थान में एवं गर्म स्थान से ठंडे स्थान में जाना नहीं कल्पता । जहां बैठे हों वहीं सर्दी-गर्मी सहनी होती है ।
प्रथम सात प्रतिमाओं में उपर्युक्त सभी नियमों का पालन आवश्यक हैं। केवल आहार- पानी की एक-एक दत्ति क्रमशः बढ़ती जाती है। (दत्ति का तात्पर्य - एक बार में दिये जाने वाला आहार अथवा पानी)
आठवीं प्रतिमा सात दिन-रात की होती है । उसमें चौविहार एकान्तर तप किया जाता है एवं ग्रामादिक के बाहर उत्तानासन ( आकाश की ओर मुंह करके लेटकर) पाश्र्वासन ( एक पासे से लेटकर ) या निषद्यासन (पैरों को बराबर रखते हुए बैठकर ) से कायोत्सर्ग किया जाता है। देव-मनुष्यतिर्यञ्च संबंधी उपसर्ग होने पर चलित होना नहीं कल्पता । मूल-मूत्र की शंका का निवारण किया जा सकता है । पारणे में आहार पानी की आठआठ दत्तियां ली जा सकती हैं। शेष नियम पूर्ववत् हैं ।
नौवीं प्रतिमा में बेले- बेले पारणा एवं दण्डासन, लकुटासन और उत्कटुकासन से कायोत्सर्ग किया जाता है।
दसवीं प्रतिमा में तेले-तेले पारणा एवं गोदोहासन, वीरासन व आम्रकुब्जासन से कायोत्सर्ग होता है। दूसरी विधियां पूर्ववत् है किन्तु आहार- पानी की दत्तियां नौ-नौ एवं दस-दस ली जा सकती हैं। ये दोनों प्रतिमाएं भी सात-सात दिन-रात की होती हैं।
ग्यारहवीं प्रतिमा एक दिन रात की होती है । इसमें चौविहार बेला करके कायोत्सर्गासन में खड़ा होकर ध्यान किया जाता है। शेष सभी नियम पूर्ववत् हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org