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प्रस्तावना
जैन धर्म का यथार्थ और व्यापक ज्ञान करने के लिए साध्वाचार और श्रावकाचार की आचार प्रणाली का ज्ञान करना जरूरी है। दोनों का गहरा संबंध है। साध्वाचार का ज्ञान करने से एक सीमा तक श्रावकाचार का ज्ञान हो सकता है। इसी प्रकार श्रावकाचार का ज्ञान करने से साध्वाचार की प्रारंभिक भूमिका का ज्ञान हो सकता है। इस पुस्तक में प्रश्नोत्तर की शैली में साध्वाचार का सुन्दर विवेचन किया गया है।
पांच महाव्रत की साधना साध्वाचार का प्राण तत्त्व है। पांच महाव्रतों की साधना के लिए आठ प्रवचन माता की आराधना जरूरी है। जिस प्रकार मां बच्चे की सार-संभाल रखती है तथा उसकी सुरक्षा के प्रति निरन्तर जागरूक रहती है। जैन साधु के लिए आठ प्रवचन माता की भी वही भूमिका है इसलिए इनको मां कहा गया है।
जब मुझे दीक्षा लिए लगभग डेढ़ वर्ष का समय हुआ तब तत्कालीन साध्वीप्रमुखाश्री लाडाजी ने मुझसे अचानक प्रश्न किया साधु के मां कितनी होती है। यह सुनकर एक बार मैं अवाक् हो गया। थोड़ी ही देर में गुरुदेव श्री तुलसी द्वारा निर्मित निम्नलिखित पद्य मेरे स्मृति पटल पर उभर आया
है आलूं ही प्रवचन माता, जो रहसी आरै सुखसाता।
तो नहिं होसी कोई दुखदाता ।। इसके आधार पर मैंने उत्तर दिया-साधु के आठ मां होती हैं।
साधु अचित्त भोजी होता है। वह भिक्षा में अचित्त भोजन ही ग्रहण करता है। इसके लिए श्रावक को सचित्त-अचित्त का ज्ञान होना जरूरी है। आजकल बहुत से श्रावक सचित्त-अचित्त की परिभाषा से बिल्कुल
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