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________________ सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल ७७ श्रमण परम्परा में है फिर भी वैदिक परम्परा ने भी उसे परिवर्तित रूप में अपनाया । वैदिक आश्रम व्यवस्था में गृहस्थ और संन्यास के अतिरिक्त विद्यार्जन का एक आश्रम ब्रह्मचर्य और संन्यास की तैयारी के लिए एक आश्रम वानप्रस्थ बनाया। इस प्रकार श्रमण परम्परा के श्रावक और साधु ये दो विभाजन वैदिक परम्परा में चार भागों में विभक्त होकर चार आश्रमों के रूप में व्यवस्थित हुए। इन चार आश्रमों की अवधारणा के पीछे चार पुरुषार्थों के बीच संतुलन स्थापित करने की भावना रही है। अर्थ पुरुषार्थ की साधना केवल गृहस्थ जीवन में की जाती है। इसीलिए गृहस्थ का अपना महत्त्व है। वह तीनों आश्रमों को अन्न भी देता है और ज्ञान भी देता है, इसलिए वह सभी आश्रमों में बड़ा है यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो ज्ञानेनान्नेन चान्वहम् । गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही।। गृहस्थ की इस श्रेष्ठता के फलस्वरूप नारी को भी बहुत सम्मानजनक स्थान मिला। मनु ने माता को पिता की अपेक्षा शतगुणा अधिक पूजनीय माना और यह घोषणा कर दी कि जहां नारी का सम्मान नहीं होता, वहां सारे कर्म निष्फल हो जाते हैं यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। वर्णाश्रम व्यवस्था का एक अंश भारतीय समाज में परिस्थिति बदल जाने के बावजूद जातियों के रूप में बहुत कुछ इस अर्थ में बचा हुआ है कि अनेक जातियों मे पुत्र पैतृक व्यवसाय या हुनर को अपनाकर ही अपनी आजीविका अर्जित करते हैं। छुआछूत संविधान द्वारा कानूनी अपराध घोषित कर दिया गया है, किंतु धन केन्द्रित अर्थव्यवस्था ने वर्णाश्रम व्यवस्था के मूलरूप को तो बदल ही दिया है। आज ब्राह्मण वर्ग भी विद्याप्रेम को छोड़कर अर्थलोलुपता की ओर अग्रसर हो रहा है। ब्रह्मचर्य आश्रम का स्थान आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने ले लिया है। वानप्रस्थ के स्थान पर कुछ समाजसेवी संस्थाएं खड़ी हो गई हैं। संन्यास में कुछ विरक्त और ज्ञानी पुरुष आज भी हैं, लेकिन कुछ मठ जैसी चीजें स्थापित करके सम्पत्ति के स्वामी भी बन बैठे हैं। व्यवहार की जो स्थिति हो, भारत का बहुसंख्यक वैदिक समाज फिर भी सिद्धान्ततः वर्णाश्रम व्यवस्था को ही अपना आदर्श मानता है। व्रती समाज जैन परम्परा व्रत केन्द्रित है। व्रत के दो रूप हैं-महाव्रत और अणुव्रत । महाव्रत साधु के लिए हैं और उसका समाज व्यवस्था से लगभग कोई संबंध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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