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सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल
- ७५ खड़े हो रहे हैं और व्यक्ति अब एक ही स्थान से बंधकर भी नहीं रह रहा है। एक बात ध्यान देने की यह है कि जहां समाजवादी व्यवस्था और पूंजीवादी व्यवस्था अर्थ को केंद्र में रखकर चलती है वहां वर्ण व्यवस्था कर्तव्य को केन्द्र में रखकर चलती है। इस कारण वर्ण व्यवस्था में उपभोक्तृ-संस्कृति के दोष नहीं हैं। वहां ऊंच-नीच का आधार पैसा नहीं है। उदाहरणतः ब्राह्मण का वर्ण सर्वोच्च है, किंतु उसके पास पैसा सबसे अधिक नहीं होता। इसके विपरीत वैश्य के पास सबसे अधिक पैसा है, किंतु उसका स्थान ब्राह्मण से ऊपर नहीं है। इसका अर्थ यह होता है कि वर्ण व्यवस्था में व्यक्ति का मूल्यांकन पैसे के आधार पर नहीं किया गया । उद्योगीकरण के पूर्व तक यह व्यवस्था मानवीयता को केंद्र में रखकर चलती थी, धन को नहीं। कोई व्यक्ति अपंग है अथवा कोई महिला विधवा हो जाती है या कोई बच्चा अनाथ हो जाता है तो भी वे सब सम्मिलित कुटुम्ब की रसोई से ससम्मान भोजन पाने के अधिकारी थे। वृद्धावस्था या रोग की अवस्था में न तो उन्हें अकेलेपन का अनुभव होता था
और न असहायता का। मुद्रा का प्रचलन और काले धन की समस्या
__ बहुत समय तक वर्ण आश्रित समाज वस्तु विनिमय के आधार पर ही ग्रामीण अर्थ व्यवस्था में जीता रहा। नोटों का प्रचलन पिछले डेढ़ सौ वर्ष पूर्व ही हुआ। इन्हीं डेढ़ सौ वर्षों में काले धन की समस्या भी उत्पन्न हुई है। पहले अमीर वर्ग तो आवश्यकता से अधिक संग्रह करता था किंतु अब मध्यम वर्ग भी भिन्न-भिन्न योजनाओं के अन्तर्गत ऐसे धन के संग्रह में जुट गया जिस धन के उसके द्वारा भोगे जाने की संभावना बहुत कम रहती है। इस दृष्टि का अर्थ है धन के लिए धन, न कि आवश्यकता के लिए धन । यही है काले धन के विस्तार का रहस्य। गृहस्थ आश्रम का महत्त्व
आर्थिक दृष्टि से आश्रम व्यवस्था भी विचारणीय है। चार आश्रमों में तीन आश्रम भिक्षावृत्ति पर रहते हैं। धनोपार्जन और धन का संग्रह केवल गृहस्थ ही करता है और गृहस्थ ही बाकी तीन आश्रमों की योगक्षेम की व्यवस्था भी करता है। बाकी तीन आश्रम ज्ञान और धर्म की चिंता करते हैं, धन की नहीं। यद्यपि वर्णाश्रम व्यवस्था व्यवहार में पूरी तरह कभी लागू नहीं हो सकी, इसके बावजूद वर्णाश्रम व्यवस्था ने मनुष्य की उच्छंखल वृत्ति पर, उसकी अर्थलिप्सा और कामलिप्सा पर जो अंकुश लगाया, वह न पूंजीवादी व्यवस्था लगा सकी और
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