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________________ सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल ७१ समान है कि ये दोनों ही धन को सर्वेसर्वा मानकर चल रहे हैं तथापि इतना अन्तर है कि पूंजीवाद धन पर व्यक्ति का अधिकार मानता है, समाजवाद धन पर राज्य का अधिकार मानता है । कल्पना यह है कि व्यक्ति व्यक्ति के प्रति अन्याय कर सकता है, किंतु राज्य किसी के प्रति अन्याय नहीं कर सकता । इसलिए यदि धन पर राज्य का अधिकार होगा तो व्यक्ति व्यक्ति का शोषण नहीं कर सकेगा और राज्य सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा और सबको न्याय देगा। इस विचारधारा ने बहुत अच्छे विचारकों को प्रभावित किया । यह बात बहुत आकर्षक दृष्टिगोचर हुई कि श्रमिक वर्ग सदियों से चले आने वाले शोषण से मुक्त हो जायेगा। यह माना गया कि यह उद्देश्य इतना पवित्र है कि यदि समृद्ध वर्ग समझाने से न समझे और इस उद्देश्य की प्राप्ति में बाधक बने तो उस वर्ग के विरुद्ध हिंसा का प्रयोग करना भी पाप नहीं है; इतना ही नहीं है, बल्कि पुण्य है । अन्याय के विरुद्ध शस्त्र उठाने को पुण्य मानने की परम्परा बहुत पुरानी है जिसे धर्मयुद्ध या जिहाद नाम से जाना जाता है। समाजवाद धर्मयुद्ध का नवीन संस्करण बनकर हमारे सामने आया। एक बार लगा कि दुनिया का नक्शा बदल जायेगा । समाजवादियों की समझ में क्योकि धर्म भी यथास्थिति बनाये रखकर शोषण का पोषण कर रहा था अतः समाजवाद ने धर्म को गरीबों के लिए अफीम मानकर नकार दिया । तत्कालिक सोवियत संघ और चीन जैसे बड़े राष्ट्रों में समाजवाद व्यावहारिक रूप में आया । समाजवाद की समीक्षा समाजवाद से जिन परिणामों की अपेक्षा की जा रही थी वे परिणाम सामने नहीं आये बल्कि लोहावरण के टूटते ही यह तथ्य उजागर हुआ कि समाजवादी देश पूंजीवादी देशों की अपेक्षा आर्थिक दृष्टि से पिछड़ गया है व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन हुआ सो अलग। व्यक्ति में जो सहज ही मतभेद रहा करते हैं उन मतभेदों को दबाने का समाजवादी प्रयत्न सफल नहीं हो सका। सोवियत संघ तो बिखर ही गया। चीन भी मिश्रित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ने लगा है। कारण स्पष्ट है - सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार समाप्त होते ही व्यक्ति में प्रतिस्पर्द्धा की भावना से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा सूख जाती है पब्लिक सेक्टर में मालिक कोई नहीं होता, सब नौकर होते हैं और इसलिए प्रतिस्पर्द्धा में टिक सकने वाली उत्पादन व्यवस्था नहीं बन पाती । पूंजीवादी व्यवस्था में भले श्रमिकों की रुचि उत्पादन में न हो, किंतु उद्योगपति की रुचि उत्पादन बढ़ाने में अवश्य रहती है। समाजवादी व्यवस्था में यह रुचि किसी की नहीं रहती । अतः अर्थ को केन्द्र में रखने वाली समाजवादी व्यवस्था अर्थ की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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