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महाप्रज्ञ-दर्शन
पूंजीवाद बनाम श्रम
एक और मुख्य बात यह रही कि पूंजीवादी व्यवस्था में धनी वर्ग न केवल विलासिता में फँसा अपितु श्रम करना भी छोड़ बैठा । श्रम करने को एक छोटा काम समझ लिया गया। श्रम एक मूल्य नहीं रहा, बल्कि एक पदार्थ बन गया जिसे पैसे से खरीदा जा सकता हो। तो फिर जिसके पास पैसा है, वह श्रम को पैसे से क्यों न खरीदे और स्वयं श्रम क्यों करे?
अर्थशास्त्रियों के अनुसार पदार्थ तीन भागों में बांटे जाते हैं१. आवश्यकता की पूर्ति करने वाले पदार्थ २. आराम देने वाले पदार्थ। ३. विलासिता में साधन बनने वाले पदार्थ ।
आवश्यक पदार्थ न मिले तो जीवन दुष्कर हो जाता है। आरामदायक पदार्थ मिलते रहें तो जीवन में सुविधा मिलती है, लेकिन विलासिता के साधनभूत पदार्थ जीवन को ऊपर नहीं ले जाते अपितु नीचे की ओर धकेलते हैं। किंतु पूंजीवादी व्यवस्था में विलासिता के उपकरणों का कोई निषेध नहीं
यों पूंजीवादी व्यवस्था बहुत पुरानी है, लेकिन औद्योगिक क्रांति ने पूंजीवाद को एक दूसरा ही रूप दे दिया। कृषि प्रधान व्यवस्था में मनुष्य श्रम से संपन्न बन सकता था। औद्योगिक प्रक्रिया श्रम से सम्पन्न बनने की नहीं है, वह पैसे से पैसा खींचने की प्रक्रिया है। इसलिए उसमें पैसा ही साध्य हो गया। उद्योग में जितने श्रम की आवश्यकता है, वह श्रम उद्योगपति स्वयं नहीं करता, अपितु पैसे से खरीदता है। ऐसी स्थिति में श्रमिक मनुष्य नहीं रहता, कारखाने का एक पुर्जा बनकर रह जाता है। कारखाने के यंत्रों की चिंता फिर भी मालिक करता है क्योंकि यंत्र यदि खराब हो जाये या टूट जाये, तो दूसरा यंत्र मंगवाने में पैसा लगता है। लेकिन एक श्रमिक यदि बीमार हो जाये या मर जाये तो दूसरे दस श्रमिक बाजार में उतने ही वेतन पर या उससे भी कम वेतन पर काम करने के लिए तैयार हैं। अतः मजदूर के सार संभाल की भी कोई आवश्यकता उद्योगपति को अनुभव नहीं होती। अर्थ का केन्द्र में आना ही अनर्थ की जड़
चूंकि उद्योगों का प्रयोजन अर्थोपार्जन है, आवश्यकता की पूर्ति नहीं, अतः उद्योगपति उन पदार्थों का भी उत्पादन करता रहता है जिसकी वस्तुतः आवश्यकता नहीं है, किंतु जिनमें लाभ का अंश अधिक है और ऐसे माल को
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