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________________ ४१ भावभूमि काल चक्र का आवर्तन काल की एक अवधारणा रेखाकार है। उसमें सदा आगे की ओर ही गति होती है। काल की दूसरी अवधारणा वर्तुलाकार है। उसमें गति आगे भी होती है और पीछे भी; हम शिशु से युवा तथा युवा से बूढ़े हो जाते हैं यह आगे की ओर गति है किंतु जब मरने के बाद अगले जन्म में हम पुनः शिशु बन जाते हैं तो यह काल में पीछे की ओर गति करने का उदाहरण हुआ। ऐसा इसलिए होता है कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त काल की वर्तुलाकार गति वाले सिद्धान्त पर आधृत है। सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग के अनन्तर पुनः सतयुग आ जाता है-यह काल में पुनरावर्तन हुआ, जो पहले था वही पुनः आ गया। जैन अवधारणा में उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के रूप में काल की अवधारणा में भी यही होता है। काल लौटता है तो काल के साथ जुड़ी घटनाओं की भी पुनरावृत्ति हो जाती है। प्रत्येक काल चक्र में चौबीस ही तीर्थंकर होते हैं। यह इतिहास की पुनरावृत्ति है। वेद में एक रोचक प्रश्न उपस्थित हुआ। वेद में कुछ इतिहास की बातें आ गई हैं। प्रश्न हुआ कि वेद तो अनादि हैं, फिर उनमें इतिहास कहां से आ गया? उत्तर मिला कि वेद में जिस इतिहास का वर्णन है, यह इतिहास भी अनादि है-प्रत्येक युग में उस इतिहास की पुनरावृत्ति अनादिकाल से हो रही है। इस संसार में नया कुछ भी नहीं है-ऐसा कुछ भी नहीं है जो पहले न हो चुका हो-न हि कदाचिदनीदृशं जगत्। अजरता अमरता का सूत्र आज विज्ञान ऐसी बातें करने लगा है कि जो पुराणों में वर्णित घटनाओं से भी अधिक अविश्वसनीय हैं। आईंस्टीन का कहना था कि दो जुड़वा शिशुओं में से एक पृथ्वी पर ही रहे और दूसरा प्रकाश की गति से अन्तरिक्ष में यात्रा करने लगे तो कुछ वर्षों के बाद उन दोनों की अवस्था एक जैसी नहीं रहेगी। पृथ्वी वाला बच्चा हमारे वर्षों के हिसाब से बड़ा हो जायेगा किंतु प्रकाश की गति से गति करने वाला शिशु शिशु ही रह जायेगा। यह काल की सापेक्षता सिद्ध करता है। कर्म के क्षेत्र में काल गति करता है, ज्ञान के क्षेत्र में काल स्थिर है। हम शरीर से प्रवृत्ति करते हैं तो शरीर बूढ़ा हो जाता है-काल उस पर अपना प्रभाव दिखा सकता है किंतु हम आत्मा से जानते हैं तो आत्मा बूढ़ी नहीं होती, काल उस पर अपना प्रभाव नहीं दिखाता । जो आत्मा में रमण करते हैं-राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर-उनकी मूंछ, दाड़ी नहीं दिखायी जाती। ये सभी महापुरुष लम्बी आयु वाले थे। युवा होने पर तो इनकी मूंछ, दाड़ी भी आयी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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