________________
३२
यन्मनसा न मुनते, तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि,
येनाहुर्मनो मतं । नेदं यदिदमुपासते ।
हम शब्दों में उलझ रहे हैं। शब्द इतना उलझाते हैं कि वेदान्तियों ने तो रूप के साथ-साथ नाम को भी माया ही घोषित कर दिया । जैनों ने शब्द को आकाश का गुण नहीं माना, उन्होंने शब्द को स्वयं एक पुद्गल अर्थात् जड़ मान लिया। जो जड़ में फंसा है वह चेतन को क्या पायेगा ? हाँ, जड़ भी चेतन को पाने का साधन बन सकता है। हम शब्द पर न अटक कर वहाँ तक पहुंचें जहाँ से शब्द उत्पन्न होता है, जहाँ से शब्द का स्फोट होता है तो हम शब्द ब्रह्म तक पहुंच सकते हैं। जहाँ से शब्द आ रहे हैं, वहाँ शब्द नहीं है, वहाँ मौन है
यद्वाचा न वदति येन वागभ्युद्यते । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।
महाप्रज्ञ - दर्शन
एक शिष्य को शब्दों का बहुत शौक था। गुरु से पूछा- आत्मा का स्वरूप क्या है - कोऽयमात्मा ? गुरु मौन रहे । शिष्य ने फिर पूछा। गुरु फिर मौन रहे । शिष्य ने फिर पूछा। गुरु ने कहा कि "मैं तो आत्मा का स्वरूप बता रहा हूं पर तुम समझ नहीं पा रहे हो - यह आत्मा मौन है" । -
1
अहं तु ब्रवीमि, त्वं तु न वेत्सि, उपशान्तोऽयमात्मा ।
आत्मा कहें, ब्रह्म कहें, द्रष्टा कहें- एक ही बात है । द्रष्टा बोलता नहीं है, वह मौन रहता है। जैनों के दिगम्बर सम्प्रदायानुसार तीर्थङ्कर चुप रहते हैं I द्रष्टा साक्षिभाव से देखता है तो दृश्य भी बदल जाता है। तीर्थङ्कर साक्षिभाव में रहते हैं, बोलते नहीं हैं तो दृश्यमान् में से एक ध्वनि विखरने लगती है - दिव्य ध्वनि । उसी दिव्य ध्वनि को सब अपनी-अपनी वैखरी वाक् में समझ लेते हैं ।
साक्षी केवल देखता ही नहीं बदलता भी है
द्रष्टा का साक्षिभाव से देखना दृश्य को भी बदल देता है। कार्लमार्क्स ने कहा था कि अन्य दार्शनिक दुनिया को जानने की कोशिश करते हैं, मैं दुनिया को बदलने की कोशिश करता हूं। कार्लमार्क्स ने ज्ञान की महिमा को समझा नहीं। जब हम किसी को बदलने का प्रयत्न करते हैं तो वह ऊपर से तो बदल सकता है, पर अन्दर से वह वही रहता है, बदलता नहीं क्योंकि हम किसी के अन्दर बैठकर उसे नहीं बदल सकते। किंतु जब हम किसी को . जानते हैं तो हम उसके अन्दर पैठ जाते हैं, और वह अन्दर से बदल जाता है । अन्दर से बदल जाना ही बदल जाना है। ऊपर से बदलने वाले तो बहुरूपिया हुआ करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org