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भावभूमि
पदार्थ- हमारा शरीर भी बना हुआ है। ये क्वाण्टम न्यूटन के ठोस परमाणु की भांति एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् स्थित नहीं हैं अपितु एक-दूसरे में गुत्थम-गुत्था होकर स्थित हैं, जिसके परिणाम स्वरूप विश्व का कोई अवयव विश्व के दूसरे अवयवों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । दो हजार वर्ष पहले जैन आचार्य उमास्वाति ने एक सूत्र दिया था कि एक जीव दूसरे जीव का उपग्रह करता है - परस्परोपग्रहो जीवानाम् । यद्यपि जैन परम्परा में आत्मा और जीव शब्द पर्यायवाची की तरह प्रयुक्त होते हैं किंतु वेदान्त इन दोनों में भेद करता है - वेदान्त अशरीरी चेतना के लिए "आत्मा" शब्द का तथा शरीरी चेतना के लिए "जीव" शब्द का प्रयोग करता है। आचार्य उमास्वाति के उपर्युक्त सूत्र में जीव का अर्थ शरीरी चेतना है। जहां भी शरीरी चेतनाएं हैं वे सब एक-दूसरे का उपग्रह किए हुए हैं - एक दूसरे को पकड़े हुए हैं। जब दो या दो से अधिक व्यक्ति आस-पास बैठते हैं तो दिखायी यह देता है कि वे अलग-अलग हैं किंतु उन सबका आभामण्डल भौतिक अर्थ में भी एक दूसरे के क्षेत्र में प्रविष्ट रहता
। अतः वे एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते । इस दृष्टि से सत्सङ्ग को श्रेयस्कर और दुर्जनों के सङ्ग को हेय बताया जाता हैतजि मन हरिविमुखन को सङ्ग । जाके सङ्ग कुबुधि उपजत है, परत भजन में भङ्ग। सत्सङ्ग की महिमा अपरम्पार है, सत्सङ्ग से सब कुछ हो सकता है | सत्सङ्गतिः कथय किन्न करोति पुंसाम् ।
अन्धविश्वास नहीं है श्रद्धा
हम दूसरों से प्रभावित होते हैं किंतु यह प्रभाव यान्त्रिक नहीं है । न सत्संग का प्रभाव सब पर एक सा पड़ता है न कुसंग का । एक तत्त्व है - श्रद्धा । श्रद्धा का काम है मन को ग्रहणशील बना देना। जिसके प्रति हमारी श्रद्धा होती है उसके प्रति हमारा मन आर्द्र हो जाता है; बोलचाल की भाषा में कहा जाता है कि मन पिघल जाता है। श्रद्धा नाम है इस प्रवता / नम्रता का, इस आर्द्रता का। यह आर्द्रता हमें ग्रहणशील बना देती है। जिसके प्रति हमारी श्रद्धा है उसके गुणों को हम ग्रहण करते हैं, जिसके प्रति हमारी श्रद्धा नहीं है उसके संस्कार हम ग्रहण नहीं कर पाते। साधु-जनों के प्रति यदि हमारी श्रद्धा है - ग्रहणशीलता अथवा आर्द्रीभाव है - तब ही हम सत्संग का लाभ उठा पाते हैं । अश्रद्धा का भी अपना उपयोग है। अश्रद्धा का अर्थ है - रूखापन । जिसके प्रति हम रूखे हैं उसके संस्कार हममें नहीं आते। दुर्जनों के प्रति अश्रद्धा ही श्रेयस्कर है - माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृतौ ।
न सत्संगति अन्धविश्वास का विषय है, न श्रद्धा । ये दोनों एक वैज्ञानिक सत्य हैं। प्रश्न होता है कि श्रद्धा किस पर करें? उत्तर है कि श्रद्धा का अन्तिम
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