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________________ महाप्रज्ञ-जैनेन्द्र-सम्वाद ३४७ शब्द श्रमण सूचक था। अशोक के शिलालेख, जैन और बौद्ध साहित्य में उसका गौरव के साथ प्रयोग हुआ है । आज "पाषंड" शब्द कुत्सित बन गया है। "पाषंडी" कहने से अप्रिय-सा लगता है । जैनेन्द्र- असुर शब्द हमारे लिए घृणा का है पर ईरान और फारस में असुर देव के लिए है । मुनिश्री - प्राचीन साहित्य में असुर शब्द देव के अर्थ में था । यक्ष भी महत्त्व सूचक था। आज उससे भिन्न है । आज साहसिक शब्द प्रशंसा सूचक है परंतु जब चला था उस समय अविमृश्यकारी - बिना विचारे कार्य करने वाले के अर्थ में था । अर्थ के उत्कर्ष का अपकर्ष हो गया। जैनेन्द्र- आस्तिकता ऐसी चीज है, जो घर में पैदा होने से ही आ जाती है । नास्तिकता बुद्धि के प्रयोग से होती है । मैं पहले आस्तिक था, फिर बहुत वर्षों तक अपने को नास्तिक कहता था । अब मानने लगा हूँ आस्तिक हूँ। पहली आस्तिकता जल्दी टूट गई। मुनिश्री - यह आस्तिकता पुरुषार्थ से आयी । मन, इन्द्रिय, बुद्धि, शरीर आदि जो साधन हैं, आत्मा के अस्तित्व की जानकारी के प्रत्यक्ष सहायक नहीं हैं। डॉक्टर अणु-अणु को बिखेर देता है पर शरीर में कहीं भी चित्त नहीं मिलता। इसलिए मैं कह रहा था चित्त का मानना आश्चर्य 1 - जैनेन्द्र- शरीर से भिन्नता का पीछा करना आपको क्यों आवश्यक है ? मुनिश्री - आपके पास प्रयोगशाला है । आप शरीर के कण-कण की छानबीन कर सकते हैं। पर शरीर से मुक्त चैतन्य को जानने के आपके पास साधन कहाँ हैं? हमारे पास ज्ञान के साधन पांच इन्द्रियां हैं। वे शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श को जान सकती हैं । उनको शरीर द्वारा जाना जा सकता है। यदि आप शरीर और चैतन्य की भिन्नता जानना चाहते हैं तो उसका साधन ध्यान है । समुचित मात्रा में ध्यान करने पर आपको यह अनुभूति न हो तो मुझे आश्चर्य होगा । जैनेन्द्र- क्या निश्चय और व्यवहार - ये दो बातें मन में रखनी पड़ेंगी ? निश्चय में से व्यवहार नहीं निकल सकता क्या ? व्यवहार स्वयं निश्चय की साधना में फलित होगा । निश्चय को साधेंगे तो अनुराग, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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