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________________ भावभूमि १७ अभिमानी व्यक्ति की कामना होगी कि बाकी सब लोग उसके समक्ष झुकें। मान मान को उपजाता है। दूसरे लोग भी परस्पर यही चाहेंगे कि सब लोग उनके समक्ष झुकें। तो मान के कारण कोई किसी के समक्ष नहीं झुकेगा। एक-दूसरे को झुकाने के लिए संघर्ष की स्थिति बनेगी, और सब परस्पर मरने-मारने पर उतारू हो जायेंगे। मायावी व्यक्ति सबको ठगना चाहेगा। माया से माया उपजती है। सभी मायावी बनें, तो फिर परस्पर ठगना प्रारम्भ कर देंगे। सभी ठगेंगे और सभी ठगाये भी जायेंगे। जीवन का सामान्य व्यवहार, जो परस्पर विश्वास के आधार पर ही चल सकता है, ठप्प हो जायेगा। लोभी व्यक्ति चाहेगा कि बाकी सबकी सम्पत्ति उसके पास आ जाये। लोभ से लोभ पनपता है। सब लोभी हो जायें तो सभी एक दूसरे की सम्पत्ति हड़पना चाहेंगे। सम्पत्ति किसके पास जाये? उभयतोपाश न्याय से सम्पत्ति का भोग कोई भी नहीं कर पायेगा अथवा दुनिया में मात्स्यन्याय ही चलेगा, सभ्यता पुनः अपनी प्रारम्भिक स्थिति में चली जाएगी। अध्यात्म के बिना खोखली है समाज सेवा क्रोध, लोभ, मान, माया से युक्त व्यक्ति की सब कामनाएं आत्मघाती सिद्ध होती हैं। आप मोक्ष मत चाहें, लेकिन क्रोध, मान, माया और लोभ से तो मुक्त हों। आप चाहते हैं कि आप अपना ही सुख न चाहकर सबका सुख चाहें। आप कहते हैं कि न मुझे राज्य चाहिए, न स्वर्ग, न मोक्ष, मुझे तो प्राणी मात्र को दुःख से छुटकारा दिलाने की तमन्ना है न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् । कामये दुःखतप्तानां प्राणिनाम् अर्तिनाशनम्। यह बहुत अच्छी कामना है। किंतु क्या क्रोध, लोभ, मान और माया से युक्त व्यक्ति की कामना कभी शुद्ध हो सकती है ? "सर्वे भवन्तु सुखिनः" की कामना करने में कोई कठिनाई नहीं है किंतु क्या क्रोधी, लोभी, अभिमानी और मायावी किसी को सुख दे सकता है? क्रोध, मान, माया और लोभ से पहले अपना छुटकारा कर लें-यह जरूरी है, भले ही मोक्ष की कामना न करें। जहां तक हमारा सवाल है, हम तो कषाय मुक्ति को ही मुक्ति मानते हैंकषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव। क्रोध, मान, माया और लोभ का ही नाम कषाय है। कषाय से छुटकारा न मिले तो दूसरे का भला करने की कामना ऐसी ही है जैसे कोई अपने हाथ में कीचड़ लपेट कर उसी हाथ से दूसरे के कपड़ों पर पड़ी धूल झाड़ना चाहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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