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रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे मनःपादः
• वर्तमानं मनः स्वरूपतः
० त्रैकालिकं वस्तुज्ञानरूपतः
० श्लिष्टचित्तैकाग्रता धारणा
• सुलीनचित्तैकाग्रता ध्यानम् • उभे धर्मध्यानम्
स्वरूप की दृष्टि से मन वर्तमान ही होता है । वस्तुज्ञान की दृष्टि से वह
कालिक होता है ।
श्लिष्ट चित्त की एकाग्रता को धारणा और सुलीन चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहा जा सकता है। इन दोनों को एक शब्द में धर्मध्यान कहा जा सकता है ।
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ज्ञानवैराग्याभ्यां मनश्शान्तिः
मन को शांत करने का मुख्य मार्ग है - श्रुत की भावना, ज्ञान का अभ्यास वैराग्य, आत्मज्ञान का अभ्यास, आत्मज्ञान का निरन्तर विचार |
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० शान्ते मनसि सत्यस्तित्वाभिव्यक्तिः
जब मन शांत होता है तब अस्तित्व प्रकट होता है। अस्तित्व और मन - ये दोनों साथ-साथ बहुत कम रहते हैं। जब मन सक्रिय रहता है तब अस्तित्व सोया रहता है और जब मन निष्क्रिय होता है तब अस्तित्व जागता है ।
० मनस्तटस्थं
० न चलं न स्थिरम्
मन का स्वरूप चेतना की धारा से निर्मित होता है। वह अपने आप में न कलुषित है और न निर्मल, न चंचल है न स्थिर । जैसा उत्पादन होता है वैसा ही वह निर्मित हो जाता है ।
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चेतनाचेतनमनसोः संयोगस्संज्ञानम्
जिसमें चेतन और अचेतन दोनों मनों का योग होता है, काँशियस माइण्ड और सब - काँशियस माइण्ड दोनों का योग होता है, उसे संज्ञा या संज्ञान कहते हैं ।
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स्थूलमनोनिष्क्रियता चेतनमनोजागरणं योगः
अचेतन मन को जगाने और स्थूल मन को सुलाने का साधन है - योग ।
० चित्तशोधनं प्रायश्चित्तम्
प्रायश्चित्त का अर्थ है - चित्त का शोधन | जिससे चित्त का शोधन होता है उस प्रक्रिया का नाम है- प्रायश्चित्त ।
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