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रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे भावपादः ० प्रशान्तचित्तं शुक्ललेश्यालक्षणम्
__ आभामण्डल में श्वेत वर्ण की प्रधानता हो तो समझा जा सकता है कि यह प्रशांत चित्त वाला है। ० कृष्ण-नील-कापोत-लेश्यानामार्तध्यानम् ० तेषां तीव्रभावानां रौद्रध्यानम् ० तैजस्-पद्म-शुक्ललेश्यानां धर्मध्यानम् ० शुक्ललेश्यानां परमशुक्ललेश्यानाञ्च शुक्लध्यानम् ___ आर्तध्यान-कृष्ण, नील और कापोत लेश्या की भावधारा, कृष्ण नील और कापोत वर्ण की प्रधानतां वाला अमनोज्ञ आभामण्डल।
रौद्रध्यान-कृष्ण, नील और कापोत लेश्या की प्रकृष्ट भावधारा कृष्ण, नील और कापोत वर्ण की प्रधानता वाला अमनोज्ञतम आभामण्डल ।
धर्मध्यान-तैजस, पद्म और शुक्ल लेश्या की भावधारा, तैजस शुक्ल, पद्म और शुक्ल वर्ण की प्रधानता।
शुक्लध्यान-शुक्ल और परमशुक्ल लेश्या की भावधारा शुक्लवर्ण का मनोज्ञतम आभामंडल। ० शरीरसम्बद्धानि चित्तं मन इन्द्रियाणि वा ० तेषां स्नायु-सम्बद्धत्वात। ० स्नायुर्द्विविधः-ज्ञानवाही क्रियावाही च ० तत्र नियंत्रणं सम्भवम् ० लेश्यानां शोधनं, तासामशरीरत्वात्
चित्त, मन और इन्द्रियां-ये सब स्थूल शरीर से संबद्ध हैं। लेश्या का हमारे स्थूल शरीर से तो संबंध नहीं है, जिनके मस्तिष्क है, सुषुम्ना है, नाड़ी संस्थान है उनके लेश्या होती है, तो जिन जीवों में ये नहीं होते, केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है उनके भी लेश्या होती है। वह लेश्यातंत्र भावों का निर्माण करने वाला तंत्र, यह चेतना केन्द्र सबसे अधिक सक्रिय और जागृत होता है। जितनी स्नायविक क्रिया होती है, वह सारी शरीर से संबंध रखती है। मन का कोई भी विचार, वाणी की कोई भी प्रवृत्ति, शरीर की कोई भी क्रिया
और बुद्धि या चित्त की कोई भी क्रिया इस शरीर तंत्र के स्नायविक योग के बिना नहीं होती। ज्ञानवाही स्नायु और क्रियावाही स्नायु-दोनों प्रकार के स्नायु इन सारी क्रियाओं का संपादन करते हैं, किंतु लेश्या के लिए इन स्नायुओं की कोई अपेक्षा नहीं है। यह स्नायु से परे हैं। यहां यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आत्म-नियंत्रण स्नायविक स्तर पर होता है और आत्मशोधन लेश्या के स्तर पर होता है।
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