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महाप्रज्ञ-दर्शन ० मनसा चेतनाऽयोगश्शुद्धोपयोगः। तत्र ध्यानं सहजम।
मन के साथ चेतना का योग न हो तो ध्यान की कोई आवश्यकता नहीं है। फिर हम स्वयंसिद्ध बन जाते हैं। चेतना मन के साथ जुड़ी हुई नहीं है : इसका अर्थ है-मन सक्रिय होता ही नहीं। उस स्थिति में कोई संकल्प-विकल्प चिंता होती ही नहीं है। मन का यंत्र मृतवत् पड़ा रहता है। यह सहज ध्यान की भूमिका है। शुद्ध उपयोग की भूमिका है। ० एकाग्रतया क्रियासिद्धिः
क्रिया की सिद्धि का अर्थ है-एकाग्रता, स्थिरता। जब व्यक्ति एक घंटे की एकाग्रता साध लेता है तब उसे अपना मार्ग स्वयं दिखने लग जाता है। ० एकावलम्बनमेकाग्रता
एकाग्रता-एक आलम्बन पर सतत स्मृति का रहना एकाग्रता है। ० चित्तप्रवाहैकतानता ध्यानम् _ ध्यान-चित्त का वह संतति-प्रवाह जो अवलम्बित विषय के अतिरिक्त दूसरे विषयों का स्पर्श नहीं करता, ध्यान कहलाता है। ० विषयान्तरास्पर्शवती चित्तसंततिर्ध्यानम्। ० कर्मप्रकम्पनं निर्जरा
निर्जरा के लिए एक शब्द है-विधूननम्-प्रकंपित कर देना। जैसे पक्षी पंखों को हिलाकर सारे रजःकणों को धुन डालता है, हिला डालता है, वैसे ही जो निर्जरा करने वाला है, वह अपनी सत्प्रवृत्ति के द्वारा कर्मरजों को धुन डालता है, प्रकंपित कर, झाड़ कर साफ कर देता है। निर्जरा प्रकंपन की प्रक्रिया है। ० प्रकम्पननिरोधस्संवरः
एक प्रक्रिया है संवर की। इससे प्रकंपन बंद हो जाते हैं। सामायिक संवर की प्रक्रिया है। इसमें प्रकंपन निरुद्ध हो जाते हैं, शांत हो जाते हैं। जैसे ही मन समभाव की स्थिति में जाता है, वैसे ही प्रकंपन बंद हो जाते हैं। ० सुप्तोत्थानं साक्षात्कारः
साक्षात्कार का अर्थ है-सुप्त चेतना का जागना। ० सत्यसाक्षात्कारो दृष्टिपरिवर्तनम्।
दृष्टि बदलने का अर्थ है-सत्य का साक्षात्कार होना।
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