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________________ सापेक्षता और अनेकांत : विज्ञान और दर्शन तृतीय नेत्र इस प्रकार अनेकान्त के अनेक स्तर हैं। तत्त्व मीमांसा में वह अनित्यतायुक्त ध्रुवता है, आचार मीमांसा में वह समता है और विचार मीमांसा में वह तटस्थता। प्रसिद्ध है कि शिव के तीसरे नेत्र में से निकलने वाली अग्नि ने काम दहन कर दिया था। समझा जाता है कि स्त्री-पुरुष के परस्पर सम्पर्क में आने से कामवासना जागती है। यह एक कारण है। इसमें सूक्ष्म कारण है-पीनियल और पिच्युटरी ग्रन्थि के स्राव का गोनाड्स पर स्रवित होना। इसमें भी सूक्ष्म कारण है मोहनीय कर्म का उदय और उसमें भी सूक्ष्म है भाव संस्थान की सक्रियता। तृतीय नेत्र का पुराना नाम है-आज्ञाचक्र। वहीं पीनियल और पिच्युटरी ग्रन्थि है। इस स्थान पर ध्यान करने से पिच्युटरी और पीनियल ग्रन्थि के स्राव बदल जाते हैं और गोनाड्स पर नहीं जा पाते। तब कामवासना अपने आप समाप्त हो जाती है। परिस्थिति-मनःस्थिति __ परिस्थिति और मनःस्थिति का भी निर्णय सापेक्ष दृष्टि से करना होगा। इन दोनों में से किसी एक पर दायित्व नहीं डाला जा सकता। इस प्रकार जहां भी दो मत हमारे सम्मुख आयें वहां उन दोनों के बीच सापेक्ष भाव से समन्वित दृष्टि अपनानी होगी। हमारी दृष्टि को सेराटोनिन रसायन प्रभावित करता है। यह प्रभाव शास्त्रीय भाषा में दर्शन मोहनीय और चरित्र मोहनीय कर्म का है। प्रसिद्ध मादक एल.एस.डी. में सेराटोनिन रसायन रहता है जो हमारी चेतना को मूर्च्छित करता है। यह मूर्छा ही दर्शन मोहनीय कर्म है। दर्शन मोहनीय चेतना के केन्द्रों पर ध्यान करने से मूर्छा का विघटन होता है और दृष्टि बदलती है। हम समझते हैं कि कामवासना और स्नेहभाव बंधन है, किंतु इन दोनों से भी बड़ा बंधन है दृष्टि के प्रति राग कामरागस्नेहरागौ ईषत्करनिवारणी __ दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेदः सतामपि। साधु गृहस्थी के बंधन को छोड़ देता है, पर शास्त्र में आसक्त हो जाता है। शास्त्र की आसक्ति का अर्थ है विचारों के प्रति आग्रह । आचार्य हेमचन्द्र ने कहा कि मूल बात राग-द्वेष का समाप्त होना है। ब्रह्मा, विष्णु, शिव या जिन, कोई भी हो जिसमें राग-द्वेष नहीं, वह वन्दनीय है भवबीजाकुरजननाः, रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य ब्रह्मा वा विष्णुर्वा शिवो जिनो वा नमस्तस्मै। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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