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दृष्टि
आचाय महाप्रज्ञ क साहित्य के स्वाध्याय का एक महत्त्वपूर्ण निष्पात्त है-दृष्टि-परिवर्तन । हमारे मानस में कुछ मिथ्या धारणाएं जड़ जमाये रहती हैं। विचार करने पर पता चलता है कि हमारी वे धारणाएं भ्रान्त थीं। जब तक उन मिथ्या धारणाओं का निराकरण न हो और सम्यक् धारणा उनका स्थान न ले ले, तब तक वे मिथ्या धारणाएं ही हमारे जीवन को संचालित करती रहती हैं। परिणाम होता है-कुण्ठा, सन्त्रास और विरसता । जब सम्यक् धारणाएं मिथ्या धारणाओं के स्थान पर आती हैं तो जीवन की दिशा भी बदल जाती है और परिणाम होता है-प्रफुल्लता, अभय और सरसता । आचार्य महाप्रज्ञ के साहित्य का अनुशीलन करने से जो मुख्य दृष्टि-परिवर्तन हमारे सम्मुख आये, उनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है। पाठकों की सुविधा के लिए हम इस विवरण को विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत दो कॉलम में विभक्त करके देंगे। प्रथम कॉलम में हम वे धारणा देंगे जो सामान्यतः प्रचलित रहती हैं और द्वितीय कॉलम में हम वह धारणा देंगे जो आचार्य महाप्रज्ञ का साहित्य पढ़ने के अनन्तर बनती हैं
भाव-भूमि
प्रचलित अवधारणा
सम्यक् अवधारणा १. सत्य उतना ही है जितना इन्द्रियों १. कुछ सत्य ऐसे भी हैं और वे से प्रतीति में आता है।
अधिक महत्त्वपूर्ण हैं-जो
इन्द्रियातीत हैं। २. हम जो जानते हैं वही मानते हैं। २. कभी-कभी हम जानते कुछ और हैं
और मानते कुछ और हैं।
३. हम जो सोचते हैं वही करते हैं। ३. कभी-कभी हम सोचते कुछ और हैं
तथा करते कुछ और हैं।
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