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________________ सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल जिसके लिए जो दलाल नियुक्त हैं वे अपना कार्यालयीय कार्य उतनी मुस्तैदी से नहीं करते हैं, जितनी मुस्तैदी से दलाली का काम करते हैं। व्यवस्थायें बदली जा सकती हैं और जब तब बदली भी जाती हैं। लेकिन कोई भी व्यवस्था रहे उसकी सफलता तो उसे चलाने वाले व्यक्तियों की सुसंस्कारिता पर ही निर्भर करेगी। शिक्षा व्यक्ति को पैसा कमाने का उपाय सिखाये लेकिन संस्कार न दे तो इस स्थिति को नहीं बदला जा सकता। परिग्रह और सुख की व्याप्ति नहीं है आज हमारी शिक्षा में इस व्याप्ति के दोष नहीं बताये जाते कि जहां-जहां पदार्थ हैं, वहां-वहां सुख हैं। यह व्याप्ति इस गलत आधार पर बना ली गई है कि पदार्थ के अभाव में दुःख देखने में आता है। यदि यह व्याप्ति बनाई जाये कि जहां आवश्यक पदार्थ नहीं है, वहां दुःख है, तो यह व्याप्ति गलत नहीं है। भूख हो और रोटी न मिले तो दुःख होता ही है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि पदार्थ के सद्भाव में सुख होता ही है। भूख न हो तो रोटी होने पर भी सुख नहीं दे सकती। यह धारणा भी गलत है कि परिग्रह सदा समृद्धि लाता है। एक व्यक्ति सर्दी में तीन कपड़ों में स्वस्थ और प्रसन्न घूम रहा है और दूसरा व्यक्ति पांच कपड़ों में भी न स्वस्थ रह पाता है और न सर्दी के भय से मुक्त हो पाता है। दूसरे व्यक्ति के पास पहले की अपेक्षा दो कपड़े अधिक हैं किंतु क्या यह कहा जा सकता है कि वह पहले व्यक्ति की अपेक्षा वह समृद्ध भी अधिक है? एक दूसरा उदाहरण लें-एक व्यक्ति के सम्मुख शुद्ध सात्विक सुपाच्य और स्वास्थ्यप्रद भोजन आता है। उसे खुलकर भूख लगी है और इसलिए उसे वह सादा भोजन भी अत्यन्त स्वादिष्ट लगता है। दूसरे व्यक्ति को खुलकर भूख लगती ही नहीं और इसलिए जब तक उसे तेज मिर्च मसालों वाला तला हुआ चटपटा भोजन न मिले, तब तक उसका भोजन करने को मन ही नहीं करता। पहले वाले व्यक्ति का सादा भोजन दस रुपये की लागत से बन जाता है और दूसरे प्रकार के भोजन में पच्चीस रुपये की लागत आती है। प्रश्न होता है कि पहली प्रकार का भोजन करने वाला व्यक्ति अधिक सुखी समृद्ध है या दूसरी प्रकार का भोजन करने वाला। स्पष्ट है कि परिग्रह के बढ़ने के साथ हमारी सुख समृद्धि बढ़ जाये, ऐसा कोई नियम नहीं है। आज हमारे संस्कारों में यह बात नहीं डाली जा रही कि परिग्रह का अभाव दुख का कारण है, तो परिग्रह का अतिभाव भी हमारी विपन्नता का सूचक है और दुःख का कारण भी है। यह संस्कार शायद समाजवाद भी नहीं डालता। वह अभाव को मिटाने के लिए अतिभाव पर अंकुश तो लगाता है, लेकिन यह नहीं सिखाता कि अतिभाव की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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