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जैन साधना पद्धति में ध्यान
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शैशव के अधीन, कभी यौवन में गर्वित, कभी दुर्जेय बुढ़ापे से जर्जरित तो कभी यमराज के हाथों परतंत्र बनता रहा हूं।' इस प्रकार भावभ्रमण का यह चक्र सदा चलता रहा है, उसे तोड़ना चाहता हूँ।
उत्तराध्ययन में मृगापुत्र कहता है कि संसार में दुःख ही दुःख है। जन्म, मृत्यु, जरा, रोग सब दु:ख है। अहो ! इस दुःखित संसार में जीव क्लेश प्राप्त कर रहे हैं। साधक दु:ख-द्वन्द्वों से भरे संसार के प्रति विरक्त बनें। निर्वेद-वैराग्य मन में जागे। जगत के स्वरूप को जाने। तभी संसार में रहता हुआ प्राणी अपने मन को संन्यस्त कर पाएगा। साधना में विकास होगा। एकत्व अनुप्रेक्षा
प्रेक्षाध्यान पद्धति में एकत्व अनुप्रेक्षा का चिन्तन करते हुए साधक जन्म-जन्मान्तरों से अर्जित संस्कारों का व्यामोह तोड़ने का प्रयत्न करता है। "मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं, इस संसार में'' मैं भी किसी का नहीं, ऐसा चिन्तन करना एकत्व अनुप्रेक्षा है।
जब कभी समय आता है, घटना घटती है, प्राणी की जब भी मूर्छा टूटती है तो अनुभव जागता है कि प्राणी के संयोग-वियोग में, जन्म-मरण में, दुःख-सुख में कोई किसी का मित्र नहीं बनता। वह अकेला ही इस संसार में आता है और अकेला ही मौत का वरण करता है। अकेला ही कर्मों का संचय करता है और अकेला ही उनका फल भोगता है। इस प्रकार का चिन्तन करता हुआ प्राणी राग-द्वेष-मोह से मुक्त होकर निसंगता को प्राप्त होता है। प्रेक्षाध्यान का साधक आगम की भाषा में चिन्तन करता है -
एगो मे सासओ अप्पा, नाण दंसण लक्खणो
सेसा में बाहिरा भावा, सव्वे संजोग लक्खणा ॥ ज्ञानदर्शनस्वरूप शाश्वत आत्मा है। इसके सिवाय सारे सांयोगिक पदार्थ मुझसे भिन्न है। वह मैं नहीं, जो दीख रहा हूं। साधक एकत्व अनुप्रेक्षा में अपने को सभी संयोगों से भिन्न मानता है। नमि राजर्षि का यही आत्मबोध कि "संयोग मात्र दु:ख है" उन्हें आत्मसाधना की ओर मोड़ दिया।
प्रेक्षाध्यान के सन्दर्भ में अनुप्रेक्षा की महत्ता पर आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं - जो सच्चाई है, उसे देखना अनुप्रेक्षा है। "सत्यं प्रति अनुप्रेक्षा" यथार्थ के प्रति अनुप्रेक्षा। अपनी धारणाओं को छोड़ दें। मान्यताओं को छोड़ दें और फिर जो सच्चाई है, यथार्थ है, उसको
1. शान्त सुधारस भावना - 3/4-5; 2. उत्तराध्ययन 19/15 3. आचारांग 8/97
4. ज्ञानार्णव 2/4 5. शान्तसुधारस भावना 4/2; 6. आचारांग 6/38
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