________________
जैन साधना पद्धति में ध्यान
181
ROTATIT
परिवर्तन होता है। वह अधोगामी न होकर ऊर्ध्वगामी बनती है। - शक्ति नीचे की ओर जाती है, उसे ऊपर ले जाने का जिम्मेदार सूत्र है अन्तर्यात्रा। मस्तिष्क की ऊर्जा का नीचे जाना भौतिक जगत् में प्रवेश करना है। काम-केन्द्र की ऊर्जा का ऊपर जाना अध्यात्म जगत् में प्रवेश करना है। विद्युत का यह परिवर्तन पौद्गलिक सुख की अनुभूति के स्थान पर अध्यात्म सुख की अनुभूति देता है।
हठयोग में इड़ा और पिंगला दो प्राणप्रवाह माने गए हैं । इड़ा बायां और पिंगला दायां प्राण-प्रवाह है। जब प्राण-प्रवाह सुषुम्ना के मध्य प्रवाहित होता है तब अन्तर्यात्रा शुरू हो जाती है। चेतना का सुषुम्ना में रहना अन्तर्यात्रा है और दाएंबाएं आ जाना बहिर्यात्रा है। प्रेक्षाध्यान में अन्तर्यात्रा का अपना वैशिष्ट्य है। यह प्रयोग प्रत्येक ध्यान शिविर के साथ जोड़ा गया है, क्योंकि अन्तर्मुखी बने बिना ध्यान में प्रवेश संभव नहीं होता है। कहा गया है
कि अन्तर्यात्रा अभौतिक ऊर्जा के जागरण का हेतु एवं चेतना के आभ्यन्तरीकरण की यात्रा है।'
श्वासप्रेक्षा - श्वास का संबंध हमारे जीवन से है। केवल जीवन से ही नहीं, आन्तरिक भावनाओं से भी इसका गहरा संबंध है। वैज्ञानिक जगत् में भी श्वास के संबंध में हुए अनुसंधान ने यह तथ्य प्रस्तुत किया है कि हमारी भावनाओं और श्वास का परस्पर गहरा संबंध है।
वस्तुत: वाणी, मन और नाड़ी संस्थान - इन सबमें प्राण का संचार करने का माध्यम बनता है श्वास । बाह्य और अन्तर - दोनों के बीच श्वास सेतु बना हुआ है। चेतना के जागरण में तथा उसके सूक्ष्म स्पन्दनों को सक्रिय बनाने में इसका बड़ा योगदान है।
1. आचार्य तुलसी (गणाधिपति) - प्रेक्षा अनुप्रेक्षा, पृ. 98
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org