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________________ अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक व्यर्थ ही क्यों भटकाया ? पहले ही दिन यह बात बता देते । आपने ही तो मुझे महीनों तक भटकाया है । आपने ऐसा क्यों किया ?” गुरु ने कहा - 'सत्य अपच होता है । परिश्रम के बिना सत्य पच नहीं सकता । यदि मैं पहले बता देता कि इस दुनिया मे जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति दुःख से बच नहीं सकता, दुःख से मुक्त नहीं हो सकता, तो यह सचाई तुम्हारी समझ में नहीं आती । अब तुम जगह-जगह घूम आए हो, खूब भटक चुके हो । अब यह सचाई सहजतया समझ में आ सकती है कि इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति दुःख से अस्पृष्ट रह नहीं सकता । यह सच इतना अपच होता है, दुष्पच होता है कि पहले ही क्षण में उसे पचाया नहीं जा सकता ।' निर्विचार कैसे बनें ? बहुत सारे व्यक्ति पूछते हैं - निर्विचार कैसे हो ? यदि पहले ही दिन यह बता दिया जाए कि निर्विचार ऐसे हुआ जा सकता है तो यह सच पचेगा नहीं । समझ में भी नहीं आएगा। पल्ले कुछ भी नहीं पड़ेगा । अभी तो आपको अंगरखे की खोज करनी है। घूमना है, भटकना है। घर-घर में अलख जगानी है । गांव-गांव और घर-घर में जाना है । सबको देखना है । सब कुछ देख लेंगे, चिन्तन की पूरी प्रक्रिया को देख लेंगे, विचारों की पूरी यात्रा कर लेंगे, परिक्रमा कर लेंगे, फिर यह बात समझ में आ जाएगी कि निर्विचारता का भी मूल्य है और इस प्रकार निर्विचार हुआ जा सकता है । यह जब तक नहीं होगा, यानी चिन्तन की पूरी यात्रा नहीं होगी, विचारों की परिक्रमा सम्पन्न नहीं होगी तब तक अचिन्तन की बात, न सोचने की बात समझ में नहीं आएगी और उसका मूल्य भी आप नहीं आंक पाएंगे । इस दुनिया में जीने वाला - शरीर, प्राण, मन और बुद्धि की सीमा में जीने वाला कोई भी व्यक्ति निर्विचार नहीं हो सकता । जैसे मोह, माया और ममता की सीमा मे जीने वाला कोई भी व्यक्ति दुःख से मुक्त नहीं हो सकता; वैसे ही बुद्धि और शरीर की परिधि के बीच में जीने वाला कोई भी व्यक्ति विचार से मुक्त नहीं हो सकता । यह बहुत बड़ी सचाई है । यह तभी समझ ८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003047
Book TitleSamayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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