SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६७ सामायिक और इन्द्रिय संवर इन्द्रिय-संवर की प्रक्रिया प्रश्न होता है-इन्द्रिय-संवर कैसे होता है ? क्या इन्द्रियों का संवर किया जा सकता है ? क्या जीभ पर कोई चीज रखें और वह अच्छी है या बुरी, इस भाव से बचा जा सकता है ? क्या सामने रूप आने पर वह सुन्दर है या असुन्दर, इससे बचा जा सकता है | हां, यह सब संभव है | जीभ पर चीज रखें तो यह पता लग सकता है कि वह मीठी है या कड़वी या तिक्त ? आगे की स्थिति में यह पता लगना भी बंद हो जाता है । जीभ के ज्ञानांकुर अपना काम बंद कर देते हैं । संवेदनकेन्द्र भी अपना काम समाप्त कर देते हैं । यह संभव है, क्योंकि जब व्यक्ति संवेदन की भूमिका से ऊपर उठकर ज्ञान की भूमिका में जाता है, चैतन्य के अनुभव में जाता है तब संवेदना की भूमिका नीचे रह जाती है और ज्ञान की भूमिका ऊपर आ जाती है । इसके उपाय का निर्देश करते हुए जयाचार्य ने लिखा है-'ते जीत्या मन थिर करी'-मन को स्थिर कर इन्द्रियों को जीता जा सकता है | हम लोग इन्द्रियों को जीतने का सीधा प्रयत्न करते हैं । सीधा इन्द्रियों को जीतना कभी संभव नहीं होता | आंख को जीतना, कान को जीतना, जीभ को जीतना कभी संभव नहीं है । वास्तव में उनको जीतना ही नहीं है वे तो लड़ती ही नहीं हैं । इन्द्रियां बेचारी कब लड़ती हैं, कब हमें सताती हैं कि हम उनको जीतें । वे बेचारी कुछ भी नहीं करतीं । वे तो ज्ञान की धारा हैं । उनके साथ लड़ना हमारी भ्रांति है | यह तो ठीक वही बात है कि एक चिड़िया कांच पर बैठी है और अपने प्रतिबिम्ब पर चोंच मारती चली जाती है। एक सिंह कुएं पर गया | जल में प्रतिबिम्ब देखा । सिंह की आकृति देख उसने दहाड़ा । प्रतिबिम्ब भी दहाड़ा । उसने सोचा-मेरा प्रतिद्वन्द्वी दहाड़ रहा है । वह उससे लड़ने के लिए कुएं में कूद पड़ा । दूसरे को मारने वाला स्वयं पानी मे छटपटा कर मर गया । ___आज मनुष्य भी यही कर रहा है । वह अपने ही प्रतिबिम्ब से लड़ने की बात सोच रहा है । इन्द्रियां हमारी ज्ञानधारा है । उसके साथ लड़ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003047
Book TitleSamayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy