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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
सुदर्शन माता-पिता का आशीर्वाद ले घर से चला । मित्रों ने एक बार फिर रोका और टोका उन सबने, जिन्हें इस बात का पता चला । पर सत्याग्रही के पैर कब रुक सके हैं ? उसके पैर जिस दिशा में उठ जाते हैं, वे मंजिल तक पहुंचे बिना रुक नहीं पाते । सुदर्शन अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ा । वह अकेला था । उके साथ था केवल श्रद्धा का बल । वह प्रतोली-द्वार तक पहुंचा । आरक्षिक ने उसे रोककर पूछा - 'कहां जाना चाहते हो ?' 'गुणशील चैत्य में ।' 'किसलिए ?'
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'भगवान् महावीर की उपासना के लिए ।
'बहुत अच्छा । किन्तु श्रेष्ठपुत्र ! इस राजपथ से जाना क्या मौत को निमंत्रण देना नहीं है ?"
'हो सकता है, किन्तु मैं मौत को निमंत्रित करने नहीं जा रहा हूं ।' 'यह राजपथ राजाज्ञा द्वारा अवरुद्ध है, आपको पता होगा ?' 'हां, मुझे मालूम है पर मैं जिस उद्देश्य से जा रहा हूं, वह अबाधित है । जिसका सबको भय है, उससे मैं भयभीत नहीं हूं, फिर यह राजपथ मेरे लिये क्यों अवरुद्ध होगा ?'
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आरक्षिक इसके उत्तर की खोज में लग गया। सुदर्शन के पैर आगे बढ गए। सुनसान राजपथ ने सुदर्शन के प्रत्येक पद-चाप को ध्यान से सुना उसमें न कोई धड़कन थी, न आवेग और न विचलन | सुदर्शन राजपथ के कण-कण को ध्यान से देखता जा रहा था । पर उसे सर्वत्र दिखाई दे रहा था महावीर का प्रतिबिंब | वह सुन रहा था पग-पग पर महावीर का सिंहनाद | राजपथ के आसपास अर्जुन घूम रहा था । लग रहा था जैसे काल की छाया घूम रही हो । उसने सुदर्शन को आते देखा । उसे लगा जैसे कोई बलि का बकरा आ रहा है । वह सुदर्शन की ओर दौड़ा । भय अभय को परास्त करने के लिए विह्वल हो उठा। श्रद्धा और आवेश के समर की रणभेरी बज चुकी । सुदर्शन ने अपनी तैयारी पूर्ण कर ली । उसने समता की दीक्षा स्वीकार की । वह संकल्प का कवच पहन कायोत्सर्ग की मुद्रा में खड़ा हो गया । उसकी ध्यान-मुद्रा उपसर्ग का अन्त होने से पहले भग्न नहीं होगी, यह उसकी आकृति बता रही थी ।
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