________________
२४
अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
वास्तव में प्रवृत्ति एक शरीर की ही है । ये दो योग-मन का योग और वचन का योग तो गौण हैं । प्रवृत्ति मात्र के तीन अंग हैं-लेना, परिणमन करना
और छोड़ना । ग्रहण, परिणमन और विसर्जन-ये तीनों काम एक शरीर के ही होते हैं । मनोयोग और वचन योग का काम केवल विसर्जन है, ग्रहण या परिणमन नहीं है । ग्रहण करने का कार्य काययोग का है, शरीर की प्रवृत्ति का है । मनोवर्गणा के पुद्गल और वचन वर्गणा के पुद्गल-इनका ग्रहण भी काययोग के द्वारा ही होता है ।
सामायिक की पद्धति
शरीर मूलभूत वस्तु है । शरीर की चंचलता छूटती है तो सब कुछ ठीक हो जाता है, प्रकम्पन भी कम हो जाते हैं । सामायिक समाधि का मूल कारण है शरीर की स्थिरता । सामायिक के बत्तीस दोष माने जाते हैं । शरीर का हिलाना-डुलाना, सहारा लेना, चंचल करना आदि-आदि सामायिक के दोष हैं । सामायिक में शरीर स्थिर होना चाहिए । शरीर जितना स्थिर और शान्त होगा, उतनी ही सामायिक समाधि प्राप्त होगी, सिद्ध होगी । शरीर चंचल रहेगा तो कुछ भी नहीं बनेगा । सामायिक में शरीर स्थिर और मन खाली होना चाहिए । तीनों बातें साथ में होती हैं तब सामायिक समाधि निष्पन्न होती है।
शरीर को शिथिल करना, मन को खाली करना, प्रकम्पनों को ग्रहण न करना, उत्पन्न न होने देना-यह है सामायिक की पद्धति या सामायिक न समाधि का उपाय। तब होती है सिद्धि
केवल जान लेने, उच्चारण कर देने या उपदेश दे देने से समता निष्पन्न नहीं होती । हम जो चाहते हैं, वह निष्पन्न नहीं होता । वह होता है क्रिया के द्वारा | सिद्धि के लिए हमारे आचार्यों ने तीन उपाय बतलाए हैं-क्रिया, मन्त्र और औषध । क्रिया का अर्थ है-एकाग्रता, स्थिरता । तीन घंटे तक एक विषय पर एकाग्रता करें तो एकाग्रता की सिद्धि मानी जाती है । इसका नाम है क्रिया की सिद्धि | यह प्रथम बार में ही नहीं हो जाती । अभ्यास इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org