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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
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सामने वाले व्यक्ति के सुख-दुःख के संवेदन को पढ़ना । तुम पढ़ो, निरीक्षण करो, पढ़ते चले जाओ, निरीक्षण करते चले जाओ । पढ़ते-पढ़ते, निरीक्षण करते-करते एक क्षण वह आएगा, जब तुम आत्म-तुला को साक्षात् कर लोगे । आत्म-तुला का सिद्धान्त ___ महावीर को एक दिन में ही यह पता नहीं चला-जैसे मुझे सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही सामने वाले प्राणी को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय होता है | सतत निरीक्षण और अन्वेषण से महावीर ने इस नियम का पता लगाया और आत्म-तुला के सिद्धांत की स्थापना हो गई। महावीर ने कहा-ऐसेऐसे भी लोग हैं, जो कहते हैं-'हमें दूसरों से क्या ? हमें अपना देखना है । हम किस-किस की चिन्ता करेंगे ?' वे दूसरों की चिन्ता नहीं करते, नौकरों, कर्मचारियों और शूद्रों की चिन्ता नहीं करते, पशु-पक्षी और सामान्य प्राणियों की चिन्ता नहीं करते । मध्यकाल में स्त्रियों के लिए तो ऐसे कड़े नियम बना दिए गए, जिनमें क्रूरता ही क्रूरता झलकती है । कारण यही रहा-आत्म-तुला के इस नियम को समझा नहीं गया । निदर्शन की भाषा
भगवान् महावीर ने इस सिद्धांत को उदाहरण की भाषा में समझाया-पचास आदमी बैठे हैं । एक सिगडी में अंगारे जल रहे हैं । मुखिया व्यक्ति ने एक व्यक्ति से कहा-अंगार-पात्र उठाकर अमुक व्यक्ति के हाथ में रख दो । वह व्यक्ति संडासी से अंगार-पात्र उठाकर दूसरे व्यक्ति के हाथ में रखेगा । वह सोचता है-यदि मैं अपने हाथ से अंगार-पात्र उठाऊंगा तो मेरा हाथ जल जाएगा किंतु वह यह नहीं सोचता-हाथ से अंगार-पात्र उठाने से मेरा हाथ जलता है तो उसका भी हाथ जल सकता है। उसका हाथ भी मेरे जैसा ही है । जिस व्यक्ति में ऐसा चिन्तन जागता है, वह दूसरे के हाथ पर अंगार-पात्र नहीं रख पाएगा । स्वयं संडासी से अंगार-पात्र उठाए और दूसरा उसे हाथ में ले, यह न्याय या आत्म-तुला की बात नहीं है, पक्षपात और विषमता की बात है। व्यवहार-परिवर्तन का सिद्धांत : आदमी अपने लिए सुख चाहता है पर दूसरे की कठिनाई को नहीं
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