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अध्यात्म का प्रथम सोपान : सामायिक
धन इतना आ गया, बचे कैसे ? बहुत खा लिया अब पचे कैसे ? बहुत कमा लिया, उसको कहां रखें ? इन्कमटेक्स से कैसे बचें ? चोर-डकैतों से कैसे बचें ? यह चिन्ता सताती है और तनाव पैदा हो जाता है । तनाव दोनों तरफ से है । लाभ में भी तनाव और अलाभ में भी तनाव । अनुकूलता में भी तनाव
और प्रतिकूलता में भी तनाव । दोनों स्थितियों में विवेक करना बड़ा कठिन होता है | जो विवेक करना नहीं जानता, वह दोनों ही स्थितियों में समस्या को निमंत्रण दे देता है । जरूरी है विवेक
एक व्यक्ति ने अपने घर में बिल्ली और कुत्ता-दोनों को पाल रखा था । बिल्ली बहुत बोलती थी, दिन और रात म्याऊं-म्याऊं करती थी । मालिक को बड़ा अटपटा लगता, वह सोचता-सारे दिन म्याऊं-म्याऊं करती है, आराम भी नहीं करने देती, नींद में भी बाधा डालती है । जब एक दिन बिल्ली म्याऊंम्याऊं कर रही थी, मालिक उसे खूब पीटते हुए बोला-क्या सारे दिन म्याऊंम्याऊं करती है ? कुत्ते ने देखा-यह बोलती है इसलिए पीटी गई है, अब मैं बोलूंगा ही नहीं । उसने मौन कर लिया । रात को घर में चोर घुस गए | चोरी हो गई। सुबह हुई । मालिक लाठी लेकर कुत्ते पर बरस पड़ा, बोला-तुझे क्यों पाला है ? इतनी रोटियां किसलिए खिलाई है ? इसलिए पाला है कि चोर आए तो भौंक कर सूचित कर दो। तुमने मौन साध रखी है । मालिक ने उसे यह कहते हुए खूब पीटा ।
बिल्ली की मरम्मत हुई ज्यादा बोलने के कारण और कुत्ते की मरम्मत हुई न बोलने के कारण | प्रश्न खड़ा हो जाता है कि मौन अच्छा है या बोलना अच्छा ? क्या करें ? हमें यह विवेक करना होता है-कहीं-कहीं मौन करना भी अच्छा है और कहीं-कहीं बोलना भी अच्छा है । बोलना भी जरूरी है और मौन भी जरूरी है | जो आदमी विवेक नहीं कर पाता है, अविवेक के साथ चलता है, वह समस्या पैदा कर लेता है । यह विवेक करना होता है कि लाभ अच्छा है या अलाभ । हम यह नहीं कह सकते हैं कि लाभ अच्छा ही है और यह भी नहीं कह सकते कि अलाभ अच्छा नहीं है | कहीं-कहीं ऐसा होता है कि अलाभ आदमी को बहुत आगे बढ़ा देता है । कुछ मिला नहीं, इस चिंतन से मन में एक भावना जागती है और व्यक्ति बहुत आगे बढ़ जाता है ।
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