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________________ कर्म-फल भोगने की कला है सामायिक भारतीय साहित्य में पुरुषों के लिए ६४ कलाएं और स्त्रियों के लिए ७२ कलाएं मानी गई हैं। स्वस्थ जीवन जीने के लिए कलाओं का बड़ा मूल्य है । जो व्यक्ति कला का मूल्यांकन करना नहीं जानता, वह सरस जीवन जीने का मूल्यांकन नहीं कर सकता | स्फूर्ति, आनन्द, प्रसन्नता- इन सबके लिए कला को आवश्यक माना जाता है। एक आचार्य ने लिखा-जो व्यक्ति सारी कलाओं को जानता है परन्तु धर्म की कला को नहीं जानता, उसकी सारी कलाएं व्यर्थ और अर्थहीन बन जाती हैं । इस धर्म-कला को एक वाक्य में अभिव्यक्ति दी जाए तो वह है कर्म-फल भोगने की कला । धर्म की कता. ___जो व्यक्ति कर्म-फल भोगने की कला को जानता है, वह व्यक्ति धर्म की कला को जानता है । जो कर्म-फल को भोगना नहीं जानता, वह धर्म की कला के नहीं जानता । इसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है-जो बन्धन से मुक्ति पाने की कला को जानता है, वह धर्म की कला को जानता है । कर्म का बन्धन होता है राग-द्वेष से । पुण्य का फल उदय में आया तो राग पैदा हो गया, पाप का फल उदय में आया तो द्वेष पैदा हो गया | राग, द्वेष, पुण्य और पाप- इस श्रृंखला का कभी अन्त नहीं होता । आदमी पुण्य का फल भोगता हुआ उन्मत्त हो जाता है । वह पाप का फल भोगता है तो घृणा करता है । पुण्य का फल भोगता है तो राग को बल मिलता है । पाप का फल भोगता है तो द्वेष को बल मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि राग और द्वेष का अस्तित्व बनाए रखने के लिए कई ऐसे माध्यम मिल गए हैं इसीलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003047
Book TitleSamayik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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