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नारी का बन्ध-विमोचन/८३
भगवान् महावीर वैशाली और कौशाम्बी के मध्यवर्ती गांवों में विहार कर रहे थे। उन्हें पता चला कि शतानीक ने विजयादशमी का उत्सव चंपा को लूटकर मनाया है। उसके सैनिकों ने जी भरकर चंपा को लूटा है और किसी सैनिक ने धारिणी और वसुमती का अपहरण कर लिया है। उनके सामने अहिंसा के विकास की आवश्यकता ज्वलंत हो उठी । वे इस चिंतन में लग गए कि हिंसा कितना बड़ा पागलपन है। उसका खूनी पंजा अपने सगे-सम्बन्धियों पर भी पड़ जाता है। कौन पद्मावती और कौन मृगावती! दोनों एक ही पिता (महाराज चेटक) की प्रिय पुत्रियां। पद्मावती का घर उजड़ा तो उससे मृगावती को क्या सुख मिलेगा? पर हिंसा के उन्माद में उन्मत्त ये राजे बेचारी स्त्रियों की बात कहां सुनते हैं? ये अपनी मनमानी करते हैं।
शक्तिशाली राजा शक्तिहीन राजाओं पर आक्रमण कर उसका राज्य हड़प लेते हैं। यह कितनी गलत परम्परा है। वे जान-बूझकर इस गलत परम्परा को पाल रहे हैं। क्या शतानीक अजर-अमर रहेगा? क्या वह सदा इतना शक्तिशाली रहेगा? कौन जानता है कि उसकी मृत्यु के बाद उसके राज्य पर क्या बितेगा? ये राजा अहं से अंधे होकर यथार्थ को भुला देते हैं। इस प्रकार की घटनाएं मुझे प्रेरित कर रही हैं कि मैं अहिंसा का अभियान शुरू करूं।
___ भगवान् को फिर पता चला कि महारानी धारिणी मर गई और वसुमती दासी का जीवन जी रही है। इस घटना का उनके मन पर गहरा असर हुआ। नारी-जाति की दयनीयता और दास्य-कर्म-दोनों का चित्र उनकी आंखों के सामने उभर आया। उन्होंने मन-ही-मन इसके अहिंसक प्रतिकार की योजना बना ली।
साधना का बारहवां वर्ष चल रहा था। भगवान् कौशाम्बी आ गए। पौष मास का पहला दिन । भगवान् ने संकल्प किया, 'मैं दासी बनी हुई राजकुमारी के हाथ से ही भिक्षा लूंगा, जिसका सिर मुंडा हुआ है, हाथ-पैरों में बेड़ियां हैं, तीन दिन की भूखी और आंखों में आंसू हैं, जो देहलीज के बीच में खड़ी हैं और जिसके सामने शूर्प के कोने में उबले हुए थोड़े से उड़द पड़े हैं।"
चंदना का यह चित्र भगवान् के प्रातिभज्ञान में अंकित हो गया। दासी के इस बीभत्स रूप में ही उन्हें चंदना के उज्ज्वल भविष्य का दर्शन हो रहा था।
___ भगवान् कौशाम्बी के घरों में भिक्षा लेने गए। लोगों ने बड़ी श्रद्धा के साथ उन्हें भोजन देना चाहा। पर भगवान् उसे लिये बिना ही लौट आए। दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे-चौथे दिन भी यही हुआ। लोगों में बातचीत का सिलसिला प्रारम्भ हो गया।
१. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० ३१६, ३१७ ।
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