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बंधन की मुक्ति : मुक्ति का अनुबंध / ७१
तन्मूर्तियोग
___ भगवान् ध्यान के समय साधन और साध्य में समस्वरता स्थापित करते थे। उनकी भाषा में इसका नाम 'तन्मूर्ति' या 'भावक्रिया' है। यह अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना से बचकर केवल वर्तमान में रहने की क्रिया के साथ पूर्णरूपेण समंजस होने की प्रक्रिया है। वे इस ध्यान का प्रयोग चलने, खाने-पीने के समय भी करते थे। वे चलते समय केवल चलते ही थे - न कुछ चिंतन करते न इधर-उधर झांकते और न कुछ बोलते। उनके शरीर और मन-दोनों परिपूर्ण एकता बनाए रखते।
भोजन की वेला में वे केवल खाते ही थे- न स्वाद की ओर ध्यान देते, न चिंतन करते और न बातचीत करते।
भगवान् आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त होने पर आत्ममूर्ति हो जाते । वर्तमान क्रिया के प्रति सर्वात्मना समर्पित होकर ही कोई व्यक्ति तन्मूर्ति हो सकता है भगवान् ने तन्मूर्ति होने के लिए चेतना की समग्र धारा को आत्मा की ओर प्रवाहित कर दिया। मन, विचार, अध्यवसाय, इन्द्रिय और भावना - ये सब एक ही दिशा में गतिशील हो गए। पुरुषाकार आत्मा का ध्यान
आत्मा दृश्य नहीं है, फिर उसका ध्यान कैसे किया जाए? यह प्रश्न आज भी उठता है, भगवान् के सामने भी उठा होगा। उन्होंने देखा, आत्मा समूचे शरीर में व्याप्त है। शरीर का एक भी अणु ऐसा नहीं है, जिसमें चेतना अनुप्रविष्ट न हो। पुरुष समग्रतः आत्ममय है, इसलिए भगवान् ने पुरुषाकार आत्मा का ध्यान किया। उन्होंने शरीर के हर अवयव में आत्मा का दर्शन किया। इससे देहासक्ति के दूर होने में बहुत सहायता मिली।
__ मन राग के रथ पर आरूढ़ होकर फैलता है। वैराग्य से सिमटकर वह अपने केन्द्रबिन्दु में स्थित हो जाता है। भगवान् वैराग्य और संवर, अभ्यास और अनुभूति के द्वारा मन की धारा को चैतन्य के महासिन्धु में विलीन कर रहे थे।
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