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बंधन की मुक्तिः मुक्ति का अनुबंध / ६९
खोज में लग गए। उस प्रकंपित करने वाली सर्दी में भी भगवान् ने छप्पर में स्थित होकर ध्यान किया। प्रकृति उन पर प्रहार कर रही थी और वे प्रकृति के प्रहार को अस्वीकार कर रहे थे। इस द्वन्द्व में वे प्रकृति से पराजित नहीं हुए। भेद-विज्ञान का ध्यान
मकान पर दृष्टि आरोपित हुई तब लगा कि आकाश बंधा हुआ है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह मकान से बद्ध नहीं है।
जल में डूबे हुए कमलपत्र को देखा तब लगा कि वह जल से स्पृष्ट है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह जल से स्पृष्ट नहीं है।
__ घट, शराव, ढक्कन आदि को देखा तब लगा कि ये मिट्टी से भिन्न हैं। मिट्टी के स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि ये मिट्टी से भिन्न नहीं है।
तरंगित समुद्र में ज्वार-भाटा देखा तब लगा कि वह अनियत है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह अनियत नहीं है।
सोने को चिकने और पीले रूप में देखा तब लगा कि वह विशिष्ट है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह अविशेष है।
अग्नि से उत्तप्त जल को देखा तब लगा कि वह उष्णता से संयुक्त है। उसके स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह उष्णता से संयुक्त नहीं है।
स्वभाव से भिन्न अनुभूति में लगा कि आत्मा बद्ध-स्पृष्ट, अन्य, अनियत, विशेष और संयुक्त है। स्वभाव की भाषा पढ़ी तब ज्ञात हुआ कि वह अबद्ध-अस्पृष्ट, अनन्य, ध्रुव, अविशेष और असंयुक्त है।
इस स्वभाव की अनुभूति ही आत्मा है । वह देह में स्थित होने पर भी उससे भिन्न
भगवान् महावीर स्वतंत्रता के साधक थे। वे सारी परम्पराओं से मुक्त होने की दिशा में प्रयाण कर चुके थे। फिर उन्हें अपने से भिन्न किसी परम सत्ता की परतंत्रता कैसे मान्य होती? उन्होंने परम सत्ता को अपने देह में ही खोज निकाला।
उनका ध्येय था- आत्मा। उनका ध्यान था - आत्मा। उनका ध्याता था-आत्मा। उनका ध्यान था आत्मा के लिए। उनके सामने आदि से अंत तक आत्मा ही आत्मा था।
तिल में तेल, दूध में घृत और अरणिकाष्ठ में जैसे अग्नि होती है, वैसे ही देह में आत्मा व्याप्त है।
कोल्हू के द्वारा तिल और तेल को पृथक् किया जा सकता है। मथनी के द्वारा दूध १. आयागे, ९।२ । १३-१६; आचारांगचूर्णि, पृ० ३१७; आचारांगवृत्ति, पत्र २८०, २८१ ।
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