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________________ आदिवासियों के बीच / ३५ 'यह हमारा क्रीड़ा-स्थल है, यहां किसलिए खड़े हो ?' 'जिसके लिए मैं भिक्षु बना हूं, उसी के लिए खड़ा हूं।' 'यह स्थान तुम्हें किसने दिया है?' 'यह किसी का नहीं है, इसलिए सबके द्वारा प्रदत्त है । ' 'अच्छा, तुम भिक्षु हो तो हमें धर्म सुनाओ।' 'अभी मैं सत्य की खोज कर रहा हूं।' 'चलो, किसी काम का नहीं है यह भिक्षु ।' – इस आक्रोश के साथ पर्यटक दल आगे बढ़ गया। सूर्य पश्चिम के अंचल में चला गया। रात फिर आ गई। अंधकार सघन हो गया। उस समय एक युगल आया। बाहर से आवाज दी, 'भीतर कौन है ?' कोई उत्तर नहीं मिला। तीसरी बार फिर वही आवाज और भीतर से वही मौन । वह युगल भीतर गया । उसे मंडप के कोने में एक अस्पष्ट-सी छाया दिखाई दी। उसने निकट पहुंचकर देखा, कोई आदमी खड़ा है। वह क्रोधावेश से भर गया, 'भले आदमी! तीन बार पुकारा, फिर भी नहीं बोलते हो !' उसने असंख्य गालियां दीं और वह चला गया। भगवान् ने सोचा, 'दूसरे के स्थान में जाकर रहना अप्रिय हो, यह आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य यह है कि शून्य - स्थान में रहना भी अप्रिय हो जाता है । कटु वचन बोलना अप्रिय हो, यह अद्भुत नहीं है। अद्भुत यह है कि मौन रहना भी अप्रिय हो जाता है । ' 1 'मुझे दूसरों के मन में अप्रीति उपजाने का निमित्त क्यों बनना चाहिए? यह जनसंकुल क्षेत्र है । मैं कहीं भी चला जाऊं, लोग आ पहुंचते हैं। कुछ लोग जिज्ञासा लिये आते हैं। मैं कम बोलता हूं, उससे वे चिढ़ जाते हैं। कुछ लोग एकान्त की खोज में आते हैं। मेरी उपस्थिति में उन्हें एकांत नहीं मिलता, इसलिए वे क्रुद्ध हो जाते हैं । कुछ लोग कुतूहलवश आते हैं। वे कोलाहल कर विपेक्ष करते हैं । जब मैं अनिमिषदृष्टि से ध्यान करता हूं, तब स्थिर, विस्फारित नेत्रों को देखकर बच्चे डर जाते हैं । इस स्थिति में क्या यह अच्छा नहीं होगा कि मैं आदिवासी क्षेत्रों में चला जाऊं। वहां लोग बहुत कम हैं। वहां गांव बहुत कम हैं। पहाड़ ही पहाड़ हैं और जंगल ही जंगल। वहां न मैं किसी के लिए बाधा बनूंगा और न कोई दूसरा मेरे लिए बाधा बनेगा ।' भगवान् के संकल्प और गति में कोई दूरी नहीं रह गई थी। उनका पहला क्षण संकल्प का होता और दूसरा क्षण गति का। वे एक मुक्त विहग की भांति आदिवासी क्षेत्र ओर प्रस्थित हो गए। न किसी का परामर्श लेना, न किसी की स्वीकृति लेनी और न सौंपना था किसी को पीछे का दायित्व । जो अपना था, वह था चेतना का प्रदीप । उसकी अंखड लौ जल रही थी। बेचारा दीवट उसके साथ-साथ घूम रहा था । १. आयारो, ९ २ ११, १२ : आचारांगचूर्णि पृ० ३१६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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