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स्वतन्त्रता का अभियान / १५
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थे । राजपथ के पास एक बड़ा प्रासाद था। जैसे ही राजकुमार उसके पास गए, वैसे ही उन्हें एक करुण क्रन्दन सुनाई दिया। लगाम का इशारा पाते ही उनका घोड़ा ठहर गया । राजकुमार ने अपने सेवक से कहा, 'जाओ देखो, कौन, किसलिए बिलख रहा है?'
सेवक प्रासाद के अन्दर गया। वह स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर वापस आ गया । राजकुमार ने पूछा, 'कहो, क्या बात है ? '
'कुछ नहीं, महाराज! यह घरेलू मामला है । '
'तो फिर इनती करुण चीख क्यों ?'
'गृहपति अपने दास को पीट रहा है । '
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'क्या दास उनके घर का आदमी नहीं है ?'
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'घर का जरूर है पर घर में जन्मा हुआ नहीं है, खरीदा हुआ आदमी है ।'
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'शासन ने न केवल खरीदने का ही अधिकार दे रखा है, किन्तु क्रीत व्यक्ति को मारने तक का अधिकार भी दे रखा है।'
राजकुमार का मन उत्पीड़ित हो उठा। वे उद्यान - क्रीड़ा को गए बिना ही वापस मुड़ गए। अब उनके मस्तिष्क में ये दो प्रश्न बार-बार उभरने लगे - यह कैसा शासन, जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य को खरीदने का अधिकार दे ।
यह कैसा शासन, जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य को मारने का अधिकार दे? उनका मन शासन के प्रति विद्रोह कर उठा। उनका मन ऐसा जीवन जीने के लिए तड़प उठा, जहां शासन न हो ।
महावीर को बचपन से ही सहज सन्मति प्राप्त थी । निमित्त का योग पाकर उनकी सन्मति और अधिक प्रबुद्ध हो गई। उन्होंने शासन की परम्पराओं और विधि-विधानों दूर रहकर अकेले में जीवन जीने का निश्चय कर लिया ।
वर्द्धमान शासन- मुक्त जीवन जीने की तैयारी करने लगे। नंदिवर्द्धन को इसका पता लग गया। वे वर्द्धमान के पास आकर बोले, 'भैया ! इधर माता-पिता का वियोग और इधर तुम्हारा घर से अभिनिष्क्रमण ! क्या मैं दोनों वज्रपातों को सह सकूंगा ? क्या जले पर नमक छिड़कना तुम्हारे लिए उचित होगा? तुम ऐसा मत करो। तुम घर छोड़कर मत जाओ । यह पिता का उत्तराधिकार तुम सम्भालो । मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करने को तैयार हूं। मेरा फिर यही अनुरोध है कि तुम घर छोड़कर मत जाओ ।"
'भैया! मुझे शासन के प्रति कोई आकर्षण नहीं है । जिस शासन में मानव की दुर्दशा के लिए अवकाश है, वह मेरे लिए कथमपि आदेय नहीं हो सकता। मेरा तन स्वतंत्रता के लिए तड़प रहा है। आप मुझे आज्ञा दें, जिससे में अपने ध्येय-पथ पर आगे १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २४९ ।
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