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________________ २७२ / श्रमण महावीर -भगवन्! दूसरे लोग उपकार करने वालों पर भी वैसी करुणा प्रदर्शित नहीं करते जैसी तुमने अपकार करने वालों पर प्रदर्शित की। यह सब अलौकिक है। २२. एकोहं नास्ति मे कश्चिन्, न चाहमपि कस्यचित्। त्वदंहिशरणस्थस्य, मम दैन्यं न किंचन॥ -मैं अकेला हूं। मेरा कोई नहीं है। मैं भी किसी का नहीं हूं। फिर भी तुम्हारे चरण की शरण में स्थित हूं, इसलिए मेरे मन में किंचित् भी दीनता नहीं है। २३. तव चेतसि वर्तेहैं, इति वार्तापि दुर्लभा। मच्चित्ते वर्तसे चेत्वमलमन्येन केनचित्॥ -मैं तुम्हारे चित्त में रहूं, यह बात दुर्लभ है। तुम मेरे चित्त में रहो, यह हो जाए तो फिर मुझे और कुछ नहीं चाहिए। २४. वीतराग! सपर्यातः तवाज्ञापालनं परम्। आज्ञाराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च॥ आकालमियमाज्ञा ते, हेयोपादेयगोचरा। आस्रवः सर्वथा हेयः उपादेयश्च संवरः॥ -वीतराग! तुम्हारी पूजा करने की अपेक्षा तुम्हारी आज्ञा का पालन करना अधिक महत्त्वपूर्ण है। आज्ञा की आराधना मुक्ति के लिए और उसकी विराधना बंधन के लिए होती है। तुम्हारी शाश्वत आज्ञा है कि हेय और उपादेय का विवेक करो। आश्रव (बन्धन का हेतु) सर्वथा हेय है और संवर (बंधन का निरोध) सर्वथा उपादेय है। २५. सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोनपेक्षम्। सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव॥ -जिसमें मुख्य की अर्पणा और गौण की अनर्पणा के कारण सबका निश्चय होता है और जहां परस्पर निरपेक्ष वस्तु निश्चयशून्य होती है, वह सब आपदाओं का अन्त करने वाला तुम्हारा तीर्थ ही सर्वोदय है - सबका उदय करने वाला है। बन्धुर्न नः स भगवानरयोपि नान्ये, साक्षान्न दृष्टतर एकतमोऽपि चैषाम्। श्रुत्वा वचः सुचरितं च पृथग् विशेषं, वीरं गुणातिशयलोलतया श्रिताः स्मः॥ १. वीतरागस्तव :१७।७। ४. युक्त्यनुशासन ६१ । वंदनाकार--आचार्य समन्तभद्र । २. वीतरागस्तव :१९।१। ५. लोकतत्वनिर्णय ३२ । वंदनाकार-आचार्य हरिभद्र । ३. वीतरागस्तव १९/४ । २६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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