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२५० / श्रमण महावीर
हुए भी 'मैं दूसरा हूं' कहकर अपने आपको छिपाना चाहते हो । गोशालक! ऐसा मत करो। ऐसा करना उचित नहीं है।'
भगवान् महावीर की बात सुनकर गोशालक क्रुद्ध हो गया। उसने भगवान् से अनेक आक्रोशपूर्ण बातें कहीं। फिर बोला – 'मुझे लगता है अब तुम नष्ट हो गए, विनष्ट हो गए, भ्रष्ट हो गए। इसमें कोई संदेह नहीं तुम नष्ट, विनष्ट और भ्रष्ट - तीनों एक साथ हो गए। पता नहीं आज तुम बच पाओगे या नहीं। अब मेरे हाथों तुम्हारा अप्रिय होने वाला है।
गोशालक दो क्षण मौन रहा। उस समय भगवान महावीर का पूर्वदेशीय शिष्य सर्वानुभूति नाम का अनगार उठा। उसका भगवान् के प्रति अत्यन्त धर्मानुराग था, इसलिए वह अपने को रोक नहीं सका। वह गोशालक के पास जाकर बोला - 'गोशालक! कोई व्यक्ति किसी श्रमण या ब्राह्मण के पास एक भी धार्मिक वचन सुनता है, वह उसे वन्दना करता है, उसकी उपासना करता है। फिर भगवान् महावीर ने तो तुम्हें प्रव्रजित किया, बहुश्रुत किया और तुम उन्हीं के साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हो? गोशालक! ऐसा मत करो। ऐसा करना उचित नहीं है।' ।
सर्वानुभूति की बात सुन गोशालक उत्तेजित हो उठा। उसने अपनी तैजस शक्ति का प्रयोग किया और सर्वानुभूति को भगवान् के देखते-देखते भस्म कर दिया।
सर्वानुभूति को भस्म कर गोशालक फिर भगवान् को कोसने लगा। उस समय अयोध्या से प्रव्रजित सुनक्षत्र नाम का अनगार उठा। उसने गोशालक को समझाने का प्रयत्न किया। सुनक्षत्र की बातें सुन गोशालक फिर उत्तेजित हो गया। उसने फिर तैजस शक्ति का प्रयोग किया और सुनक्षत्र को भस्म कर डाला। ___अब भगवान् स्वयं बोले -- 'गोशालक! मैंने तुम्हें प्रव्रजित किया, बहुश्रुत किया और तुम मेरे ही साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हो? गोशालक! ऐसा मत करो। ऐसा करना उचित नहीं है।' __भगवान् का प्रयत्न अनुकूल परिणाम नहीं ला सका। गोशालक और अधिक क्षुब्ध हो गया। वह सात-आठ चरण पीछे हटा । उसने पूरी शक्ति लगा भगवान् पर तैजस शक्ति का प्रयोग किया। उस आकस्मिक प्रयोग ने भगवान् के शिष्यों को हतप्रभ-सा कर दिया। वातावरण में भयानक सन्नाटा छा गया। चारों और धूआं और आग की लपटें उछलने लगीं। दूर-दूर के लोग एक साथ चीत्कार कर उठे।
उस आग ने भगवान् के शरीर में घुसने का प्रयत्न किया पर वह घुस नहीं सकी। वह भगवान् के शरीर के पास चक्कर काटती रही। उससे भगवान् का शरीर झुलस गया। वह शक्ति आकाश में उछली और लौटकर गोशालक के शरीर को प्रज्वलित करती हुई
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