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________________ सहयात्रा : सहयात्री / २४१ भगवान् महावीर प्रवचन कर रहे थे। श्रेणिक, अभयकुमार और अन्य अधिकारी वहां उपस्थित थे। रोहिणेय भी उनके पास बैठा था। भगवान् ने अहिंसा की व्याख्या की - 'सुख आत्मा की स्वाभाविक अनुभूति है। इन्द्रिय-सुख भी उसी अनुभूति का एक स्फुलिंग है पर दूसरे के सुख को लूटकर सुख पाने का प्रयत्न दुःख की शृंखला का निर्माण करता है। जो दूसरे का सुख लूटता है, उसे सत्य का अनुभव नहीं होता। इसका अनुभव उसे होता है जो दूसरे के सुख को लूटकर सुखी होने का प्रयत्न नहीं करता।' ___ 'एक पुरुष पक्षियों का प्रेमी था। वह अनेक पक्षियों को पिंजड़े में बंद रखता था। उसने कभी अनुभव नहीं किया कि दूसरों की स्वतंत्रता का अपहरण कितना दुःखद होता है। एक बार वह किसी कुचक्र में फंस गया। आरक्षी ने उसे बंदी बना कारागार में डाल दिया। उसकी स्वतंत्रता छिन गई। दूसरों को पिंजड़े में डालने वाला स्वयं पिंजड़े में चला गया। अब उसे सचाई का अनुभव हुआ। उसने अपने परिवार के पास संदेश भेजा - मेरा हित चाहते हो तो सब पक्षियों को मुक्त कर दो। मुझे पिंजड़े की परतंत्रता का अनुभव हो चुका है। अब मैं किसी को पिंजड़े में बन्द नहीं रख सकता।' भगवान् की वाणी सुन रोहिणेय का ज्ञानचक्षु खुल गया। उसे हिंसा का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ। वह खड़ा होकर बोला - 'भंते ! मुझे हिंसा के प्रति ग्लानि हुई है। मैं अहिंसा का जीवन जीना चाहता हूं। आप मुझे इसकी स्वीकृति दें।' श्रेणिक ने अभयकुमार से कहा - 'यह वही व्यक्ति है, जिसे रोहिणेय चोर समझकर हमारे आरक्षियों ने बन्दी बनाया था। वह धर्मात्मा प्रतीत हो रहा था। लगता है कि हमारे प्रशासन ने इसे संदेहवश तिरस्कृत किया है। सम्राट् ने अपनी बात पूरी नहीं की, इतने में उस व्यक्ति का परिचय पाकर सारी परिषद् स्तब्ध रह गई। उसने कहा-'मेरा नाम रोहिणेय है। चोरी मेरा कुलधर्म है । मैंने राजगृह को आतंकित किया है। लाखों-करोड़ों की संपदा चुराई है। मगध की सारी शक्ति मेरे पीछे लग गई पर मुझे नहीं पकड़ सकी। आज भगवान् ने मुझे पकड़ लिया। मैं हिंसा की पकड़ में नहीं आया किन्तु अहिंसा की पकड़ में आ गया।' रोहिणेय ने श्रेणिक से कहा - 'महाराज! महामात्य को मेरे साथ भेजें। मैं चुराया हुआ धन उन्हें सौंप दूंगा। मुझे विश्वास है कि वह उनके स्वामियों को लौटा दिया जाएगा। महाराज! आप मेरे बारे में क्या सोचते हैं?' 'तुम अपने बारे में क्या सोचते हो, पहले यह बताओ' - सम्राट ने कहा। रोहिणेय ने सहज मुद्रा में कहा - 'मैं भगवान् के पास दीक्षित होने का निर्णय कर चुका हूं।' 'साधुवाद, साधुवाद' - श्रेणिक का स्वर हजारों कंठों से एक साथ गूंज उठा। भय पर अभय की, संदेह पर विश्वास की हिंसा पर अहिंसा की विजय हो गई। राजगृह ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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