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________________ २२६ / श्रमण महावीर ___ काया और वचन का संचालन मन करता है, इसलिए भगवान् बुद्ध मन को ही बंधन और मुक्ति का कारक मानते थे। मज्झिमनिकाय का एक प्रसंग है - ___ 'उस समय निग्गंथ नातपुत्त निर्ग्रन्थों की बड़ी परिषद् के साथ नालन्दा में विहार करते थे। तब दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ने नालन्दा में भिक्षा-चार कर भोजन किया। उसके पश्चात् वह प्रावारिक आम्रवन में, जहां भगवान् थे, वहां गया । भगवान् से कुशल प्रश्न पूछकर एक ओर खड़ा हो गया। भगवान् ने कहा – 'तपस्वी! आसन मौजूद है, यदि इच्छा हो तो बैठ जाओ।' दीर्घ तपस्वी एक आसन ले एक ओर बैठ गया। भगवान् बोले - 'तपस्वी! पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए निग्गंथ नातपुत्त कितने कर्मों का विधान करते हैं?' __'आयुष्मान्! गौतम! कर्म का विधान करना निग्गंथ नातपत्त की रीति नहीं है। आयुष्मान् ! गौतम! दंड का विधान करना नातपुत्त की रीति है। __ 'तपस्वी? तो फिर पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए नातपुत्त कितने दंडों का विधान करते हैं?' 'आयुष्मान्! गौतम! पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए निग्गंथ नातपुत्त तीन दण्डों का विधान करते हैं, जैसे - कायदण्ड, वचनदण्ड और मनदण्ड।' 'तपस्वी ! तो क्या कायदण्ड दूसरा है, वचनदंड दूसरा है और मनदंड दूसरा है?' 'आयुष्मान् ! गौतम! कायदण्ड दूसरा ही है, वचनदण्ड दूसरा ही है मनदण्ड दूसरा ही है।' 'तपस्वी! इन तीनों दण्डों में निग्गंथ नातपुत्त पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए किस को महादोषयुक्त प्रतिपादन करते हैं - कायदंड को, वचनदण्ड को या मनदण्ड को?' 'आयुष्मान् ! गौतम! इन तीनों दण्डों में निग्गंथ नातपुत्त पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए कायदंड को महादोषयुक्त प्रतिपादित करते हैं, वैसा वचनदंड को नहीं, वैसा मनदण्ड को नहीं।' 'आयुष्मान्! गौतम! पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए कितने दण्डों का विधान करते हो?' 'तपस्वी ! दंड का विधान करना तथागत की रीति नहीं है। कर्म का विधान करना तथागत की रीति है।' 'आयुष्मान् ! गौतम ! फिर कितने कर्मों का विधान करते हो?' । 'तपस्वी ! मैं तीन कर्म बतलाता हूं। जैसे - कायकर्म, वचनकर्म और मनकर्म।' 'तपस्वी! कायकर्म दूसरा ही है, वचनकर्म दूसरा ही है, और मनकर्म दूसरा ह 'आयुष्मान्! गौतम! इन तीन कर्मों में से पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए किसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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