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सर्वजन हिताय : सर्वजन सुखाय / २०९
है। अस्तित्व में यह प्रश्न नहीं होता कि यह कौन है और किसका अनुयायी है? यह प्रश्न व्यक्तित्व की सीमा में होता है। अस्तित्व के क्षेत्र में सत्य चलता है और व्यक्तित्व के क्षेत्र में व्यवहार।
__ भगवान् महावीर अस्तित्ववादी होते हुए भी व्यक्तित्व की मर्यादा के प्रति बहुत जागरूक थे। वे व्यक्ति को अस्तित्व की ओर ले जाने में उसके व्यक्तित्व का भी उपयोग करते थे। भगवान् ने कहा - 'भिक्षुओ! किसी व्यक्ति के साथ धर्म-चर्चा करो, तब पहले यह देखो कि यह पुरुष कौन है और किसका अनुयायी है।'
एक बार भगवान् राजगृह में उपस्थित थे। उस समय भगवान् पार्श्व के श्रमण भगवान् के पास आए। उन्होंने पूछा - 'भंते ! इस असंख्य लोक में अनन्त दिन-रात उत्पन्न
और नष्ट हुए हैं या संख्येय?' भगवान् ने कहा - 'श्रमणो! इस असंख्य लोक में अनन्त दिन-रात उत्पन्न और नष्ट हुए हैं।'
उन्होंने कहा - 'भंते! इसका आधार क्या है?'
भगवान् ने कहा- 'आपने भगवान् पार्श्व के श्रुत का अध्ययन किया है वही इसका आधार है। भगवान् पार्श्व ने निरूपित किया है कि लोक शाश्वत है - अनादि-अनन्त है। यह अनादि-अनन्त है, इसलिए इसमें अनन्त दिन-रात उत्पन्न और नष्ट हुए हैं और होंगे।
भगवान् महावीर तीर्थंकर थे - शास्त्रकार थे। दूसरे के वचन को उद्धृत करना उनके लिए आवश्यक नहीं था। फिर भी उन्होंने भगवान् पार्श्व के वचन को उद्धृत किया। इसका हेतु था भगवान् पाव के श्रमणों को सत्य का बोध कराना। भगवान् पार्श्व के वचन का साक्ष्य देने से वह सरलता से हो सकता था। इसलिए भगवान् ने भगवान् पार्श्व के वचन का साक्ष्य प्रस्तुत किया। साथ-साथ भगवान् ने यह रहस्य भी समझा दिया कि सत्य स्वयं सत्य है। वह किसी व्यक्ति के निरूपण से सत्य नहीं बनता। जिन्हें दर्शन प्राप्त हो जाता है, वे सब उसी सत्य को देखते हैं, जो स्वयं सत्य है, किसी के द्वारा निरूपित होने से सत्य नहीं है।
भगवान् ने गौतम को आत्मा का बोध देने के लिए वेद मंत्र उद्धृत किए थे। इन सबके पीछे भगवान् का सापेक्षवाद बोल रहा था। सत्य सब के लिए एक है। उसका दर्शन सबको हो सकता है। वह किसी के द्वारा अधिकृत नहीं है। उसकी अभिव्यक्ति पर भी किसी का एकाधिकार नहीं है। इस यथार्थ का प्रतिपादन करने के लिए भी भगवान् दूसरों के वचन को उद्धृत करते और जिज्ञासा करने वाले को यह समझाते कि तुम जो जानना चाहते हो, उसका उत्तर तुम्हारे धर्मशास्त्र में भी दिया हुआ है।
१. भगवई,५।२५४-२५५ । २. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० ३३६ : वेदपदाण य अत्थो भगवता से कहितो ।
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