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समता के तीन आयाम / १८५
बिम्ब है और उसकी गतिशीलता प्रतिबिम्ब है।
महावीर ने इस दर्शन की भूमि में साधना का बीज बोया।अचेतन के सामने साधना का कोई प्रश्न नहीं है। उसका होना और गतिशील होना - दोनों प्राकृतिक नियम से जुड़ा हुआ है किन्तु उसकी गतिशीलता प्राकृतिक नियम से संचालित नहीं होती। वह ज्ञानपूर्वक बदलता है - जो होना चाहता है उस दिशा में प्रयाण करता है। यही है उसकी साधना। मनुष्य का ज्ञान विकसित होता है इसलिए वह विकास के चरम-बिन्दु पर पहुंचना चाहता है। उसके सामने चेतना की दो भूमिकाएं हैं - एक द्वन्द्व की और दूसरी द्वन्द्वातीत । जीवन और मृत्यु, सुख और दुःख, मान और अपमान, हर्ष और विषाद जैसे असंख्य द्वन्द्व हैं । ये मन पर आघात करते रहते हैं। उसमें मन का संतुलन बिगड़ जाता है। वह विषम हो जाता है।
द्वन्द्व के आघात से बचने के लिए महावीर ने समता की साधना प्रस्तुत की। उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म का नाम है - समता धर्म, सामायिक धर्म। इसके दो अर्थ हैं -
१. प्राणी-प्राणी के बीच में समता की खोज और अनुभूति। २. द्वन्द्वों के दोनों तटों के बीच में मानसिक समता के पुल का निर्माण ।
समता का विकास मैत्री, अभय और सहिष्णुता - इन तीन आयामों में होता है। जिस व्यक्ति में प्रतिकूल परिस्थिति को सहन करने की क्षमता जागृत नहीं होती, वह अभय नहीं हो सकता और भयभीत मनुष्य में मैत्री का विकास नहीं हो सकता। जिसमें अनुकूल परिस्थिति को सहन करने की क्षमता जागृत नहीं होती, वह गर्व से उन्मत्त होकर दूसरों में भय और अमैत्री का संचार करता है। तीनों आयामों में विकास करने पर ही समता स्थायी होती है।
समता एक आयाम में विकसित नहीं होती। यह होता है कि हम किसी व्यक्ति को मैत्री के आयाम में अधिक गतिशील देखते हैं, किसी को अभय के आयाम में और किसी को सहिष्णुता के आयाम में। इनमें से एक के होने पर शेष दो का होना अनिवार्य है। समता के होने पर इन तीनों का होना अनिवार्य है। इन तीनों का होना ही वास्तव में समता का होना है। १. मैत्री का आयाम
कालसौकरिक' राजगृह का सबसे बड़ा कसाई था। उसके कसाईखाने में प्रतिदिन सैकड़ों भैंसे मारे जाते थे। एक दिन सम्राट् श्रेणिक ने कहा, कालसौकरिक! तुम भैंसों को मारना छोड़ दो। मैं तुम्हें प्रचुर धन दूंगा।'
___ कालसौकरिक को सम्राट् का प्रस्ताव पसन्द नहीं आया। भैंसों को मारना अब १. आवश्यकचूर्णि उत्तरभाग, पृ.१६८ आदि ।
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