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१५४ / श्रमण महावीर
वह समाजवादी हो गया तब संग्रह के दो आयाम खुल गए - एक आवश्यकता और दूसरा बड़प्पन ।
आवश्यकता को पूरा करना सबके लिए जरूरी है। उसमें किसी को कैसे आपत्ति हो सकती है ? बड़प्पन में बहुतों को आपत्ति होती है और वह विभिन्न युगों में विभिन्न रूपों में होती रही है ।
महावीर के युग में लोग भूखे नहीं थे और आर्थिक समानता का दृष्टिकोण भी निर्मित नहीं हुआ था। लोग भूखें नहीं थे और भाग्यवाद की पकड़ बहुत मजबूत थी, इसलिए अर्थ-संग्रह करने वालों के प्रति आक्रोशपूर्ण मानस का निर्माण नहीं हुआ था ।
राज्य-व्यवस्था द्वारा भी संग्रह प्रतिबंधित नहीं था । हर व्यक्ति को संग्रह करने की मुक्त छूट थी । इसे समझने में मम्मण की घटना बहुत सहायक होगी ।
आषाढ़ की पहली रात बादलों से घिरा हुआ आकाश। घोर अंधकार। तूफानी हवा । उफनती नदी का कलकल नाद। इस वातावरण में हर आदमी मकान की शरण ले रहा
था।
सम्राट् श्रेणिक महारानी चेल्लणा के साथ प्रासाद के वातायन में बैठे थे। बिजली कौंधी । महारानी ने उसके प्रकाश में देखा, एक मनुष्य नदी के तट पर खड़ा है और उसमें बहकर आए हुए काष्ठउ-खण्ड़ों को खींच-खींचकर संजो रहा है। महारानी का मन करुणा से भर गया । उसने श्रेणिक से कहा ' आपके राज्य में लोग बहुत गरीब हैं। आपका प्रशासन उनकी गरीबी को मिटाने का प्रयत्न क्यों नहीं करता? मुझे लगता है कि आप भी नदी की भांति भरे हुए समुद्र को भरते हैं। खाली को कोई नहीं भरता । '
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'मेरे राज्य में कोई भी आदमी गरीब नहीं है। रोटी, कपड़ा और मकान सबको सुलभ हैं। फिर तुमने यह आरोप कैसे लगाया ? "
'मैं आरोप नहीं लगा रही हूं, आंखों देखी घटना बता रही हूं।'
'उसका प्रमाण है तुम्हारे पास?'
'प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता है? मैं आपसे एक प्रश्न पूछती हूं कि कालरात्रि में यदि कोई आदमी जंगल में काम करें तो क्या आप नहीं मानेंगे कि वह गरीब नहीं है, भूखा नहीं है?"
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'अवश्य मानूंगा। पर इस समय किसी मनुष्य के जंगल में होने की संभावना नहीं
है । '
'महाराज ! बिजली कौंधते ही आप इस दिशा में देखिए कि नदी के तट पर क्या हो
रहा है?"
सम्राट् ने कुछ ही क्षणों में उस मनुष्य को देखा और वे स्तब्ध रह गए। उनका सिर लज्जा से झुक गया। उन्होंने अपने शासन की विफलता पर महान् वेदना का अनुभव
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